Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 401
________________ पापप्रकृति] ७०३, जैन-लक्षणावली [पारञ्चिक -पूर्व में किये गये पाप के विषय में पश्चात्ताप बलादिभ्यः क्षित्युदक-ज्वलन-पवन-वनस्पत्यारम्भोऽनेकरना, वर्तमान में पाप को न करना, तथा भविष्य नोपायेन कर्तव्यः इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः । इत्येवंमें पाप का चिन्तन न करना, इस सबका नाम पाप- प्रकारं पापसंयुक्तं वचनं पापोपदेशः। (त. वा. ७, जुगुप्सा है। प्रथवा पापोद्वेग का अर्थ काय से पाप २१, २१; चा. सा. पृ. ९-१०)। ४. पापोपदेशः का परित्याग करना, वचन से उसका न कहना और पापकर्मोपदेशः, पापं यत्कर्म कृष्यादि तदुपदेशो यथा मन से चिन्तन न करना; इसे पापजुगुप्सा समझना कृष्यादि कुर्विति । (श्रा. प्र. टी. २८६) । ५. पापोचाहिए। पदेश आदिष्टो वचनं पापसंयुतस् । यद्वणिग्वधकारपापप्रकृति-पापप्रकृतयः कटुकरसा अशुभा उच्य- म्भपूर्वसावद्यकर्मसु ॥ (ह. पु. ५८-१४८) । न्ते । (शतक. दे. स्वो. वृ. १)। ६. क्लेश-तिर्यग्वणिज्यादिवचनलक्षणात् पापोपदेशात् कडुए रस वाली कर्मप्रकृतियां पापप्रकृतियां कही xxx। (त. श्लो. ७-२१)। ७. विद्याजाती हैं। वाणिज्य-मषी-कृषि-सेवा-शिल्पजीविनां साम् । पापश्रमण-१. आयरियकूलं मुच्चा विहरदि पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् । (पु. सि. समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पाव- १४२)। ८. जो उवएसो दिज्जइ किसि-पसुपालणस्समणो त्ति वुच्चदि दु॥ (मूला. १०-६८) । २. सयं वणिज्जपमुहेसु । पुरिसित्थीसंजोए अणत्थदण्डो हवे गेहं परिच्चज्ज परगेहमि वावडे । निमित्तेणं वव- विदिओ ॥ (कातिके. ३४५)। ६. पापोपदेशो हरइ पावसमणो त्ति वुच्चई ॥ दुद्ध-दही विगईओ यद्वाक्यं हिंसा-कृष्यादिसंश्रयम् । तज्जीविभ्यो न तं दआहारेइ अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे पावसमणो द्यान्नापि गोष्ठयां प्रसज्जयेत् ॥ (सा. ध. ५-७)। त्ति वुच्चई ॥ (सम्बोधस. ५३-५४) । १०. वधकारम्भकादेशौ वाणिज्यं तिर्यक्क्लेशयोः । १ जो साघु प्राचार्यकुल को छोड़कर अकेला विहार एभिश्चतुर्विधर्योगमतः पापोदेशकः ॥ (धर्मसं. श्रा. करता है तथा उपदेश को नहीं ग्रहण करता है उसे ७-१०)। पापश्रमण कहा जाता है। २ जो अपने घर को छोड़ १ गाय-भैस आदि तिर्यंचों के व्यापारविषयक, कर पर घर में व्याप्त होता है प्रात्मा को छोड़कर क्लेशकर दासी-दास आदि के व्यापारविषयक, पर पदार्थों में मुग्ध रहता है, निमित्तशास्त्र से आजी- हिंसाविषयक, प्रारम्भविषयक और वंचनाविषयक विका करता है, विकारजनक दूध-दही आदि का कथावार्ता के प्रसंग से उत्पन्न होने वाले पाप के भक्षण करता है, तथा तपश्चरण में रत नहीं रहता उपदेश को पापोपदेश कहा जाता है । ४ कृषि आदि है-उससे अरुचि रखता है। ऐसे साधु को पाप- कार्य पाप के कारण होने से पाप माने जाते हैं, ऐसी श्रमण कहते हैं। क्रियाओं के उपदेश का नाम पापोपदेश है-जैसे पापोपदेश—देखो पापकर्मोपदेश । १. तिर्यक्क्लेश- खेती करो, ऐसा उपदेश। वणिज्या-हिंसारम्भ-प्रलम्भनादीनाम् । कथाप्रसङ्ग- पामिच्छ-देखो प्रामित्य । प्रसव: स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥ (रत्नक. ३-३०)। पारञ्च-देखो पारञ्चिक । पारंचो नाम खेत्ततो २. तिर्यक्क्लेश-वाणिज्य-प्राणिवधकारम्भादिषु पाप- देसतो वा निच्छुभइ । (दशवै. चू. पृ. २६) । संयुक्तं वचनं पापोपदेशः । (स. सि. ७-२१)। क्षेत्र या देश से पृथक् कर देना, इसे पारंच कहा ३. क्लेश-तिर्यग्वणिज्या-वधकारम्भादिपू पापसंयुतं- जाता है। वचनं पापोपदेशः । तद्यथा-अस्मिन् देशे दासा पारञ्चिक-देखो अनुपस्थान। १. प्राचार्यादादास्यश्च सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महा- चार्यान्तरप्रापणमातृतीयं पारञ्चिकम् । (त. वा. ६, नर्थलाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गो-महिष्यादीन २२, १०)। २. पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्ग-राजपत्त्याअमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्त- द्यासेवनायां पारञ्चिकं भवति, पारं प्रायश्चित्तान्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या। वागरिक-सौकरिक-शाकू- मञ्चति गच्छतीति पारञ्चिकम् । (प्राव. नि. हरि. निकादिभ्यो मृग-वराह-शकुन्तप्रभृतयोऽमुस्मिन् देशे वृ. १४१८, पृ. ७६४)। ३. जो सो पारंचिो सो सन्तीति वचनं वधकोपदेशः। आरम्भकेभ्यः कृषी- एवंविहो (अणवट्ठअसंणिहो) चेव होदि, किंतु सा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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