Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 391
________________ पर्यायसमास] ६६३, जैन-लक्षणावली पर्यायाथिक जैसे अगुरुलघु और भरतक्षेत्रादि भेद, नारक प्रादि प्रमाण हो जाने पर उक्त पर्यायसमास ज्ञान का भव के तीव्रतमादि दुःखों और जीवाजीवादि अन्तिम विकल्प होता है। २ सुक्ष्म निगोदजीव के सम्बन्धी परिणामों रूप चार प्रकार का पर्यायलोक सर्वजघन्य श्रुतज्ञान के प्रागे उसके जो दो प्रादि जानना चाहिए। इनमें से द्रव्य के गुण वर्ण, रस, अविभागप्रतिच्छेद नाना जीवों में वृद्धिगत पाये गन्ध, संस्थान, स्पर्श, स्थान, गति व वर्णभेद जाते हैं वे सब पर्यायसमासज्ञान कहलाते हैं। (कृष्णादि) प्रादि हैं । परिणाम (चतुर्थ भेद) बहुत पर्यायसमासज्ञानावरणीय-पज्जयसमाससण्णिप्रकार के हैं। इन्हें पर्यायलोक जानना चाहिए। दस्स जमावरणं तं पज्जयसमासणाणावरणीयं । पर्यायसमास-१. तदो (पज्जयणाणादो) अणंत- (धव. पु. १३, पृ. २७७) । भागब्भहियं सूदणाणं पज्जयसमासो उच्चइ । अणंत- जो कर्म पर्यायसमास श्रुतज्ञान को प्रावत करता है भागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी संखेज्जभागवड्ढी उसका नाम पर्यायसमासज्ञानावरणीय है। संखेज्जगुणवड्ढी असंखेज्जगुणवड्ढी अणंतगुणवढि पर्यायस्थविर-१, पर्यायस्थविरो यस्य दीक्षितस्य त्ति एसा एक्का छवड्ढी। एरिसायो असंखेज्जलोग- -विंशत्यादीनि वर्षाणि । (योगशा. स्वो. विव. ४, मत्तीग्रो छवड्ढीयो गंतूण पज्जयसमाससुदणाणस्स ६०) । २. विंशतिवर्षपर्याय: पर्यायस्थविरः। (व्यव. अपच्छिमो वियप्पो होदि । (धव. पु. ६, पृ. २२); भा. मलय. वृ. १०-४६) । पणो पज्जयणाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे जं १ जिसे दीक्षा लिये हए २० प्रादि वर्ष हो गये हैं भागलद्धं तम्मि तत्थेव पज्जयणाणे पडिरासिदे उस साधु को पर्यायस्थविर कहते हैं। पक्खित्ते पज्जयसमासणाणमुप्पज्जदि । पुणो एदस्सु- पर्यायाम-१.xxx अविपक्करसं त पलियावरि भावविहाणकमेण अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जभा- मं ॥ (बृहत्क. ८४०)। २. पर्यायः स्वाभाविक गवड्ढि-संखेज्जभागवड्ढि-संखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्ज- औपाधिको वा फलानां पाकपरिणामः, तस्मिन् प्राप्ते गुणवड्ढि-अणंतगुणवड्ढिकमेण पज्जयसमासणाणट्ठा- ऽपि यदामं तत् पर्यायामम् । (बृहत्क. क्षे.वृ. ८३६); णाणि णिरंतरं गच्छंति जाव असंखेज्जलोगमेत्त- पर्यायामं पुनरविपक्वरसं फलादिकमुच्यते । (बृहत्क. पज्जयसमासणाणट्ठाणाणं दुचरिमट्ठाणे त्ति । पुणो क्षे. वृ. ८४०)। एदस्सुवरि एगपक्खेवे वड्ढिदे चरिमं पज्जयसमास- २ फलों के स्वाभाविक अथवा औपाधिक (पाल में णाणढाणं होदि । XXX णाणाविभागपडिच्छेद- रखने रूप) पाकपरिणाम का नाम पर्याय है, उसके पक्खेवो पज्जनो णाम । तस्स समासो जेसु णाणट्ठा- प्राप्त होने पर भी जो फल कच्चा बना रहता है णेसु अस्थि तेसिं णाणट्ठाणाणं पज्जयसमासो त्ति उसे पर्यायाम कहा जाता है। सण्णा । (धव. पु. १३, पृ. २६३-६४) । २. अनेके पर्यायाथिक-देखो पर्यायास्तिक । १. पर्यायोऽर्थः तु ज्ञानांशाः पर्यायसमासः । Xxx ये बुद्धया- प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायाथिकः । (स. सि. १-६) । दयः [यादयः] श्रतज्ञानाविभागपलिच्छेदा नाना- २. पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविजीवेषु वृद्धा लभ्यन्ते ते समुदिताः पर्यायसमासः। कारमात्रमेव भवनं न ततोऽन्द् द्रव्यमस्ति, तदव्यति(शतक. मल. हेम. व. ३८, पृ. ४२; कर्मवि. दे. रेकेणानुपलब्धेरिति पर्यायास्तिकः । अथवाxxx स्टो. व.७)। ३. तदेव ज्ञानमनन्तासंख्येय-संख्येय- पर्याय एवार्थो ऽस्य रूपाद्युत्क्षेपणादिलक्षणो न ततोभागवद्धया संख्येयासंख्येयानन्तगुणवृद्धया च वर्द्ध- ऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायाथिकः। अथवा xxx मानमसंख्येयलोकपरिमाणं प्रागक्षरश्रुतज्ञानात् पर्याय- परि समन्तादायः पर्यायः, पर्याय एवार्थः कार्यमस्य समासोऽभिधीयने । (अन.ध. स्वो. टी. ३-६)। न द्रव्यमतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहारा१पर्यायज्ञान की अपेक्षा अनन्तवें भाग से अधिक श्रुत भावात् स एवैक: कार्य-कारणव्यपदेशभागिति पर्याज्ञान पर्यायसमास कहलाता है। अनन्तभागवृद्धि, असं- याथिकः । अथवा Xxx पर्यायोऽर्थः प्रयोजनख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि मस्य वाग्विज्ञानव्यावृत्तिनिबन्धनव्यवहारप्रसिद्धेरिति असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छह पर्यायार्थिकः । (त. वा. १, ३३, १)। ३. परि वद्धियां हैं। ऐसी छह वृद्धियों के असंख्यात लोक भेदमेति गच्छतीति पर्याय:, पर्याय एवार्थः प्रयोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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