Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 343
________________ नैसर्प निधि ] यद् बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । ( स. सि. १-३; त. बा. १, ३, ५) । २. जाईसरणनिसग्गुग्गया बिन निरागमा दिट्ठी ॥ (श्राव. नि. ११४२ ) । ३. नैसर्गिकमाश्रित्याह-जातिस्मरणात् सकाशात् निसर्गेण स्वभावेनोद्गता सम्भूता जातिस्म ६४५, जैन - लक्षणावली निसर्गोद्गता XX X दृष्टिः दर्शनम्, यतः स्वयम्भूरमणमत्स्यादीनामपि जिनप्रतिमाद्याकारमत्स्यदनाज्जातिमनुस्मृत्य भूतार्थालोचन परिणाममेव नैसगिकसम्यक्त्वम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. ११४२, पृ. ५२८) । ४. विना परोपदेशेन तत्त्वार्थप्रतिभासनम् | निसर्गों XXX ॥ (त. इलो. १, ३, ३); तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शन मोहोपशमादी सत्यन्तरङ्गे हेतो बहिरङ्गादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानात् परोपदेशापेक्षाच्च प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजमधिगमजं च प्रत्येतव्यम् । (त. इलो. १-१३, पू. ६१) । ५. तत्त्वोपदेशव्यतिरिक्त माद्यं X××॥ ( धर्मप. २०-६६ ) । ६. किन्तु सत्यन्तरङ्गेऽस्मिन् हेतावृत्पद्यते च यत् । नैसर्गिकं हि सम्यक्त्वं विनोद्देशादिहेतुना ।। (लाटीसं. ३ - २१) । १ दर्शनमोह के उपशम, क्षय प्रथवा क्षयोपशम के होने पर जो सम्यग्दर्शन बाह्य उपदेश के विना प्रादुर्भूत होता है उसे नैसर्गिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है । २ जो दृष्टि (दर्शन) जातिस्मरण के श्राश्रय से स्वभावतः उत्पन्न होती है उसे नैसर्गिक सम्यक्त्व कहते हैं । इसका कारण यह है कि स्वयम्भूरमण समुद्रगत मत्स्यादिकों के जिन प्रतिमादि के श्राकार मत्स्य के देखने से जाति का स्मरण कर जो भूतार्थ के प्रालोचनरूप परिणाम होता है वही नैसर्गिक सम्यक्त्व कहलाता है । नैसर्प निधि - १. काल - महकाल-पंडू माणवसंखा य पउम इसप्पा | पिंगल - णाणारयणा प्रट्ठत्तरसयदाणि हि दे || उडुजोग्गदव्व-भायण- घण्णायुहतूर- वत्थ- हम्माणि | आभरण-सयलरयणा देंति का लादिया कमसो ॥ ( ति प ४, ७३६-४० ) । २. सम्म णिवेसा गरमागर नगर पट्टणाणं च । दो मुह-मडबाणं खंधावारावणगिहाणं ॥ ( जम्बूद्वी ३-६६, प्र. सारो. १२१६ ) । ३. काल - महकालमानव-पिंगल-णे सप्प- पउम पांडु तदो । संखो णाणारयणं वणिहिम्रो देति फलमेदं । उडुजोग्गकुसुम दामपहृदि भाजणयमा उहाभरणं । गेहं वत्थं घण्णं Jain Education International [ नोश्रागम-ज्ञशरीर भव्य. तूरं बहुरयणमणुक्रमसो ॥ ( त्रि. सा. ८२१-२२) । ४. स्कन्धावारपुरग्रामाकर द्रोणमुखौकसाम् । मडंबपत्तनानां च नैसर्पाद्विनिवेशनम् ॥ (त्रि.श. पु. च. १४- ५७४) । १ जो निधि प्रासादों (भवनों ) को दिया करती है उसका नाम नेसपनिधि है । २ जिसमें ग्राम, प्राकर, नगर, पट्टन, द्रोणमुख, मटंब, स्कन्धावार, प्रापण (हाट) और गृह के निवेश की विधि - स्थापनविधि - हो उसे नैतनिधि कहते हैं । नो अनुभागदीर्घ- अप्पप्पणी उक्कस्साणुभागट्ठानाणि बंघमाणस्स अणुभागदीहं । तदूणं बंध माणस प्रणुभागदीहं । ( धव. पु. १६, पृ. ५०९ ) । अपने अपने उत्कृष्ट अनुभागस्थानों से होन बांधने वाले के नो अनुभागदीर्घ होता है । नो- श्रागम - श्रागमादण्णो णोभागमो । (धव. पु. ३, पृ. १३) । श्रागम से भिन्न नो- श्रागम कहलाता है । नोश्रागम प्रचित्तद्रव्यभाव - श्रचित्तो पोग्गल - धम्माधम्म - कालागासदव्वाणि । ( धव. पु. ५, पृ. १८४) । पुद्गल, धर्म, श्रधर्म, काल और प्रकाश ये तद्व्यतिरिक्त प्रचित्त नो- श्रागमद्रव्यभाव हैं । नोश्रागम-ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गल - तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरम् शीर्यत इति शरीरम्, ज्ञशरीरमेव द्रव्यमङ्गलं ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलम् । अथवा ज्ञशरीरं च तद् द्रव्यमङ्गलं चेति समासः । एतदुक्तं भवति — मङ्गलपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतका - लानुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्ध सिलादितलगतमपि घृतघटादिन्यायेन नोआागमतो ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलमिति, मङ्गलज्ञानशून्यत्वाच्च तस्य । इह सर्वनिषेध एव नोशब्द: । (श्राव. हरि. वृ. पू. ५) । मंगल पदार्थ के ज्ञाता का जो शरीर है उसे नोश्रागम-ज्ञशरीरद्रष्य मंगल कहते हैं । अभिप्राय यह है कि मंगल पदार्थ के ज्ञाता का जो निर्जीव शरीर है वह भूतकाल में अनुभूत मंगलभाव की अनुवृत्ति से सिद्ध शिलातलपर स्थित होता हुआ घी के घड़े के न्याय से - व्यवहार से – नोश्रागमज्ञशरीरद्रव्यमंगल कहलाता है । नोश्रागम-ज्ञशरीर भव्यव्यतिरिक्तद्रव्य मंगलज्ञशरीर भव्य शरीरव्यतिरिक्तं च द्रव्यमङ्गलं संयम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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