Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 228
________________ दृष्टदोष (वन्दनादोष ) ] ५३०, २. मन्यादृष्टदोषगूहनं कृत्वा प्रकाश (चा. सा. 'दृष्ट' ) दोषनिवेदनं मायाचारस्तृतीयो (चा. सा. 'यो यद्दृष्टदोष:') दोष: । (त. वा. ६, २२, २; चा. सा. पृ. ६१ ) । ३. परादृष्टदोषगृहनेन प्रकटदोषनिवेदनम् । (त. इलो. ६ - २२ ) । ४. परिर [ ल ]क्षिताग:संकीर्तिः स्याद् दृष्टं XXX ॥ ( श्राचा. सा. ६-३१) । ५० यद् दृष्टं अन्यंदवलोकितं दोषजातं तदालोचयत्यदृष्टमवगूह्यति यस्तस्य सुतियो दृष्टनामाऽऽलोचनादोषः । (मूला. वृ. ११-१५ ) । ६. यद् दृष्टमपराधजातं क्रियमाणमाचार्यादिना तदेवालोचयति नापरमिति तृतीय : (दृष्टः ) आलोचनादोष: । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३४२, पृ. १९ ) 1 ७. यद् दृष्टं दूषणस्यान्यदृष्टस्यैव प्रथा गुरोः । ( श्रन. घ. ७-४१) । १ जो दोष दूसरे के द्वारा देखा जा चुका है उसकी झालोचना गुरु के पास में करता है, पर श्रदृष्ट दोष को छिपाता है; ऐसा करने वाला वह साधु मायाचारी होता है । प्राचार्य के पादमूल में यदि वृष्ट दोष के समान अदृष्ट दोष को भी विनयपूर्वक नहीं कहता है तो वह तीसरे दृष्ट नामक झालोचनादोष से लिप्त होता है । दृष्ट दोष (वन्दनादोष ) - १. दृष्टम् - प्राचार्यादिभि: दृष्टः सन् सम्यग्विधानेन वन्दनादिकं करोत्यन्यथा स्वेच्छयाऽथवा दिगवलोकनं कुर्वन् वन्दनादिकं यदि विदधाति तदा तस्य दृष्टो दोषः । (मूला. व. ७- १०९ ) । २. दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यत्स्वन्येषु सुष्ठु वा । (अन. घ. ८-१०८ ) । १ श्राचार्य आदि के द्वारा देख लेने पर यदि विधि - पूर्वक वन्दना करता है, अन्यथा मनमाने ढंग से वन्दना करता है; अथवा दिशाओं का अवलोकन करता हुआ यदि वन्दना श्रादि करता है तो वह दृष्ट दोष का भागी होता है । दृष्टादृष्टवन्दनक - १. अंतरिम्रो तमसे वा न वंदई वंदई उ दीसंतो । एयं दिट्ठमदिट्टं XXX ॥ ( प्रव. सारो. १६९ ) । २. बहुषु वन्दमानेषु साध्वादिना केनचिदन्तरितः, तमसि वा -- सान्धकारप्रदेशे व्यवस्थितो मौनं विद्यायोपविश्य वाऽऽस्ते, न तु वन्दते, दृश्यमानस्तु वन्दते, एतद् दृष्टादृष्टं वन्दनकमभिधीयते । (प्राव. ह. वू. मल. हेम. टि. पृ. ८६; प्रव. सारो. ब. पृ. १६९ ) । ३. दृष्टादृष्टं तमसि स्थित: केन Jain Education International जन-लक्षणावली [दृष्टान्त चिदन्तरित एषमेवास्ते, दृष्टस्तु वन्दत इति । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३० ) । २ जब बहुत साधु जन वन्दना कर रहे हों तब किसी श्रादि से व्यवहित होकर, प्रथवा प्रन्धकारपूर्ण प्रदेश में स्थित होकर, अथवा मौनपूर्वक बैठ कर स्थित होता है; पर वन्दना नहीं करता है। किसी के द्वारा देखा जाने पर वन्दना करता है । इस प्रकार से वन्दना करने न करने में दृष्टा• दृष्टवन्दनक दोष होता है । - दृष्टान्त - १. यत्र लौकिकानां परीक्षकाणां च बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः, तत्थ लोइयगहणेण गोवालादी तत्तवाहिरो जणो गहिनो, परिवखगगहणेण जेहि सद्दसत्याणि णायादीणि सत्याणि प्रधीतानि ते परिवखगा, एतेसि लोइयाणं परिवखगाणं च जमि प्रत्ये बुद्धिविसंवादो न भवइ सो दिट्ठतो । ( वशवं . चू. पृ. ३८) । २. सम्बन्धो यत्र निर्ज्ञातः साध्यसाधनधर्मयोः । स दृष्टान्त XX X ॥ ( न्यायवि. २ - ११) । ३. दृष्टमर्थंमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, प्रतीन्द्रियप्रमाणादृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः । ( दशवं. नि. हरि वू. ५२, पृ. ३४ ) । ४. तत्र साध्य-साघनान्वय-व्यतिरेक प्रदर्शनमाहरणम्, दृष्टान्त इति । (प्राव. नि. हरि. वृ. ८६ ) ; दृष्टमर्थं मतं नयतीति दृष्टान्तः । XXX साध्योपमाभूतस्तु दृष्टान्तः । उक्तं च - यत: साध्यस्योपमाभूतः स दृष्टान्त इति कथ्यते । (श्राव. नि. हरि. व. ६४८; नन्दी. हरि. वृ., पृ. ६२ ) । ५. तत्र दृष्टमथं मतं नयतीति दृष्टान्तः । लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त इत्यन्ये । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १५) । ६. दृष्टावन्तो धर्मों स्वभावावग्नि- धूमयोरिव साध्य-साधकयोर्वादि-प्रतिवादिभ्यां कर्तृभूताम्यामविवादेन यत्र वस्तुनि स दृष्टान्त: । (पंचा. का. जय. वृ. २७) । ७. प्रतिबन्धप्रतिपत्ते रास्पदं दृष्टान्तः । ( प्र. न. त. ३ - ४० ) । ८. साध्यव्याप्तिप्रदर्शनविषयो दृष्टान्त: । ( उपदे. मु. वू. ४८ ) । ६. स (दृष्टान्तः) व्याप्तिदर्शनभूमि: । (प्रमाणमी. १, २, २० ) । १०. दृष्ट: अन्तः परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाघनयोः सम्बन्धस्याविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्ता: । (प्रज्ञाप. मलय. वू. ३०-३१४, पृ. ५३२ ) । ११. व्याप्तिसम्प्रतिपत्तिप्रदेशो दृष्टान्तः । ( न्यायदी. १०४) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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