Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 411
________________ पुद्गलक्षेप] ७१३, जैन-लक्षणावली [पुद्गलपरावर्त त. वृत्ति श्रुत. ५-५) । २१. रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवन्तो श्रुत. ७-३१)। १०. अस्ति पुद्गल निक्षेपनामा हि पुद्गलाः। (न्यायकु. १-५, पृ. १५५) । २२. दोषोऽत्र संयमे । इतो वा प्रेषणं तत्र पत्रिकाहेमरूपाद्यात्मकत्वं पुद्गलस्यैव लक्षणम् । (सिद्धिवि.व. वाससाम् ॥ (लाटीसं. ६-१३३) । ४-८, पृ. २५४)। २३. पुद्गलाः स्युः स्पर्श-रस- २ काम करने वाले पुरुषों को लक्ष्य करके कंकड़गन्ध-वर्णस्वरूपिणः । (योगशा. १-१६) । २४. पत्थर आदि पुद्गलों का फेंकना, यह पुद्गलक्षेप गलन-पूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः । (नि. सा. व. नामक देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार है। है)। २५. रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्दवन्तश्च पदगलाः। ३ नियमित देश के बाहिर प्रयोजन के उपस्थित (धर्मश. २१-६०)। २६. पूर्यन्ते गलन्ति च पुद्- होने पर दूसरों को प्रबोधित करने के लिए कंकड़ गलाः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२३) । २७. वर्ण-गन्ध- आदि के फेंकने का नाम पुद्गलप्रक्षेप है। रस-स्पर्शयोगिनः पुद्गला मताः। (जम्बू. च. ३, पुद्गलक्षेपण-देखो पुद्गलक्षेप। ४५) । २८. द्रव्यं मूर्तिमदाख्यया हि तदिदं स्यात्पु- पुद्गलगति-जं णं परमाणुपोग्गलाणं जाव अणंतद्गलः संमतः । (अध्यात्मक. ३-१६)। पएसियाणं खंधाणं गती पवत्ती से तं पोग्गलगती। १ स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और अणु ये रूपी (प्रज्ञाप. २०५, पृ. ३२७)। -रूप, रस, गन्ध व स्पर्श वाले द्रव्य-पूदगल परमाणरूप पुदगलों से लेकर अनन्तप्रदेश वाले कहलाते हैं। ५ शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, स्कन्धों तक जो पुदगलों का गमन (प्रवृत्ति) होता छाया और प्रातप इत्यादि पर्यायें तथा वर्ण, रस, है इसका नाम पुदगलगति है। गन्ध और स्पर्श ये गुण; यह सब पुद्गलों का पुद्गलनोभवोपपातगति–जणं परमाणुपोग्गले लक्षण है। लोगस्स पुरथिमिल्लाप्रो चरमंतानो पच्चत्थिमिल्ल पुदगलक्षेप देखो बहिःपुद्गलक्षेप । १. लोष्ठादि- चरमंतं एगसमएणं गच्छति, पच्चत्थिमिल्लाप्रो वा निपातः पुद्गलक्षेपः । (स. सि. ७-३१, त. श्लो. चरमंतानो पुरथिमिल्लं चरमंतं एगसमएणं गच्छति, ७-३१)। २. लोष्ठादिनिपातः पुद्गलक्षेपः । दाहिणिल्लामो वा चरमंतागो उत्तरिल्लं चरमंतं कर्मकरान् पुरुषानुद्दिश्य लोष्ठ-पाषाणनिपातः पुद्- एगसमएणं गच्छति, एधं उत्तरिल्लामो दाहिणिल्लं, गलक्षेप इति कथ्यते । (त. वा. ७, ३१, ५)। उवरिल्लातो हेट्ठिल्लं, हिट्ठिल्लामो उवरिल्लं; से तं ३. बहिःपुद्गलप्रक्षेप: अभिगृहीतदेशाद् बहिः प्रयो- पोग्गलणोभवोववायगती । (प्रज्ञाप. २०५, पृ. जनभावे परेषां प्रबोधनाय यः लोष्ठादिक्षेपः पुदगल- ३२७)। प्रक्षेप इति भावना। (प्राव. नि. हरि. वृ. ६, पृ. परमाणु पुद्गल जो एक समय में पूर्व दिशा के अन्त ८३५) । ४. कर्मकरानुद्दिश्य लोष्ठ-पाषाणादिनि- से पश्चिम दिशा के अन्त तक, पश्चिम दिशा के पातः पुद्गलक्षेपः । (चा. सा. पृ. ६)। ५. पुद्ग- अन्त से पूर्व दिशा के अन्त तक, दक्षिण दिशा के लस्य शर्करादेनियमितक्षेत्राद् बहिर्वतिनो जनस्य अन्त से उत्तर दिशा के अन्त तक, उत्तर दिशा के बोधनाय तदभिमुखं प्रक्षेपः पुद्गलप्रक्षेपः । (ध. बि. अन्त से दक्षिण दिशा के अन्त तक, इसी प्रकार मु. वृ. ३-२२)। ६. तेषामेव लोष्ठादिनिपातः ऊपर के अन्त भाग से नीचे के अन्त भाग तक पूटुगलक्षेपः । (रत्नक. टी. ४-६)। ७. तथा पूद- और नीचे से ऊपर तक जाता है; यह सब पुद्गल गलाः परमाणवस्तत्संघातसमुद्भवा बादरपरिणामं की नोभवोपपातगति कहलाती है। प्राप्ता लोष्टेष्टकाः काष्ठ-शलाकादयोऽपि पुद्गलास्ते- पुद्गलपरावर्त---१. पुद्गलपरावतों नाम त्रैलोक्यषां क्षेपणं प्रेरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-११७)। गतपुद्गलानामौदारिकादिप्रकारेण ग्रहणम् । (श्रा. ८. पुद्गलक्षेपणं परिगृहीतदेशाद् बहिः स्वयमगम- प्र. टी. ७२)। २. यदौदारिक-वैक्रिय-तैजस-भाषानात् कार्याथितया व्यापारकारकाणां चोदनाय नापान-मनःकर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्तिनः लोष्ठादिप्रेरणम् । (सा. घ. ५-२७)। ६. पुद्गल- पुद्गलाः आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदा पुद्गलस्य लोष्ठादेः क्षेपो निपातर पुद्गलक्षेपः। (त. वत्ति परावर्त इति। (प्राचारा. शी. वृ. २, ३, ७८)। ल,६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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