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दूरसादित्त ]
जो महान् सामर्थ्य प्राप्त होता है उसे दूरभबणत्व ऋद्धि कहते हैं ।
दूरसादित्त - १. जिब्भिदिय सुरणाणावरणाणं वोरि यंतरायाए । उक्कस्सक्ख उवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि || जिब्भुक्कस्सखिदीदो बाहि संखेज्जजोयणठियाणं । विविहरसाणं सादं जं जाणइ दूरसादित्तं ॥ ( ति प ४, १८७-८८ ) । २. तप:शक्तिविशेषाविर्भावितासाधारणरसनेन्द्रिय श्रुतावरण वीर्यान्तरायक्षयोपशमांगोपांगनामलाभापेक्षस्याऽवघृत नवयोजन क्षेत्राद् बहिर्ब हुयोजन विप्रकृष्टक्षेत्रादायातस्य रसस्याऽऽस्वादनसामर्थ्यम् । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०२ ) ।
१ रसनेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यातराय कर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने पर रसनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से बाहिर संपात योजन दूर स्थित विविध रसों के स्वाद लेने की जो शक्ति प्राप्त होती है उसे
रास्वादित्व ऋद्धि कहते हैं ।
दूरस्पर्श - १. पासिदिय सुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कत्सक्ख उवसमे उदिदंगोवं गणामकम्ममि || पासुक्क सखिदीदो वाहि संखेज्जजोयणठियाणि । भट्ठविहप्पासाणि जं जाणइ दूरपात्तं ॥ ( ति. प. ४, ६८६ - ६० ) । २. एवं (श्रोत्रेन्द्रियविषय इव) शेषेष्वपि इन्द्रियविषयेषु श्रवघुतक्षेत्राद् बहि
योजन प्रकृष्ट देशादायातेषु ग्रहणसामथ्यं योज्यम् । (त. बा. ३, ३६, ३, पू. २०२ ) ।
१ स्पर्शनेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यातरायकर्म के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने पर स्पर्शनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से बाहिर संख्यात योजनों की दूरी पर स्थित प्राठों प्रकार के स्पर्श को जान लेने का जो सामर्थ्य प्राप्त होता है उसे दूरस्पर्शत्व ऋद्धि कहते हैं । दूरापकृष्टि - १. जत्तो ट्ठिदिसंतकम्मावसेसादो संखेज्जे भागे घेत्तूण ठिदिखंडए घादिज्जमाणे घादिदसेसं णियमा पलिदोवभस्स प्रसंखेज्जदिभागपमाणं हो चिट्ठदि तं सव्वपच्छिमं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागप्रमाणं द्विदिसंतकम्मं दूरावकिट्टि त्ति भण्णदे । XXX पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्मादो सुट्ठ दूरयरमोसारिय सव्वजहणपलिदोवमसं खेज्जभागस रूयेणा
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५२६, जैन - लक्षणावली
[ दृष्टदोष (मालोचनादोष )
वट्टाणादो । पत्योपमस्थितिकर्मणोऽधस्ताद् दूरतरमपकृष्टत्वादति कृशत्वाच्च दूरापकृष्टिरेषा स्थितिरित्युक्तं भवति । श्रथवा दूरतरमपकृष्टा तस्याः स्थितिकाण्डकमिति दूरापकृष्टिः । इतः प्रभृत्यसंख्येयान् भागान् गृहीत्वा स्थितिकाण्डकघातमाचरतीत्यतो दूरापकृष्टिरिति । (धव. पु. ६, पृ. २५५ का टिप्पण ३) । २. पल्ये उत्कृष्टसंख्यातेन भक्ते यल्लब्धं तस्मादेकेकहान्या जघन्यपरिमितासंख्यातेन भक्ते पल्ये यल्लब्धं तस्मादेकोत्तरवृद्धया यावन्तो विकल्पास्तावन्तो दूरापकृष्टिभेदाः । तेषु कश्चिदेव विकल्पो जिनदृष्टभावो दूरापकृष्टिसंज्ञितो वेदितव्यः ( ल. सा. टी. १२० ) ।
१ कर्म के जिस स्थितिसत्व के अवशेष संख्यात बहुभाग को ग्रहण कर स्थितिकाण्डक का घात करते हुए घात करने से शेष रहा नियम से पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण होकर स्थित होता है, पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण उस सर्वान्तिम स्थितिसत्कर्म का नाम दूरापकृष्टि है ।
दूषरण - १. वादिना प्रमाणमुपन्यस्तम्, तच्च प्रतिवावादिना दुष्टतयोद्भावितं पुनर्वादिना परिहृतम्, तदेव तस्य साधनं भवति प्रतिवादिनश्च दूषणमिति । (प्र. र. मा. ६-७३) । २. साघनदोषोद्भावनं दूषणम् । (प्रमाणमी. २,१,२८ ) ।
१ वादी ने किसी प्रमाण को प्रस्तुत किया, पर प्रतिवादी ने उसे सदोष बतलाया, तत्पश्चात् वादी ने प्रतिवादी के द्वारा प्रदर्शित दोष का निराकरण कर दिया; इस प्रकार से उक्त प्रमाण वादी के लिए सतु और प्रतिवादी के लिए दूषण हो जाता है । २ साधन में दोष के प्रगट करने को दूषण कहते हैं । दूषणाभास प्रभूतदोषोद्भावनानि दूषणाभासा जात्युत्तराणि । (प्रमाणमी. २, १, २९ ) । साधन में जो दोष सम्भव नहीं हैं उनके उद्भावन को दूषणाभास कहते हैं। इनको जात्युत्तर भी कहा जाता है ।
दृष्ट दोष (प्रालोचनादोष)- - १. जं होदि अण्णदिट्ठ तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि | अद्दिट्ठ गृहंतो माथिल्लो होदि णायव्वो । दिट्ठ व अदिट्ठ वा जदि ण कहेइ परमेण विणएण । प्रायरिय पायमूले तदिश्रो भालोयणादोसो ।। (भ. प्रा. ४, ५७४-७५)।
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