Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 347
________________ नोश्रागमभावश्रमण ] नोश्रागमभावश्रमरण - नोमागमतस्तु चारित्रपरि नामवान् यति: । ( वशवं नि. हरि. वृ. १५३) । चारित्र परिणाम वाले साधु को नोश्रागमभाव श्रमण कहते हैं । नोश्रागमभावसामायिक- १. से कि तं नोप्रागमप्र भावसामाइए ? २ - जस्स सामाणिश्रो अप्पा संजमे णिश्रमे तवे | तस्स सामाइथं होइ इह के लिभासिनं ।। जो समो सम्बभूएसु तसेसु थावरेसु अ । तस्स सामाइ होइ इह केवलिभासिनं । जह मम ण पिश्रं दुक्खं जाणित्र एमेव सव्वजीवाणं । न हणद न हणावेइ सममणइ तेण सो समणो ॥ णत्थि यसि कोइ वेसो पिओ श्र सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जानो ॥ उरगगिरि-जलण- सागर नहतल तरुगणसमो प्र जो होइ । भमर-मिय धरणि जलरुह रवि पवणसमो अ सो समणो ॥ तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ ण होइ पावमणो । सयणे अ जणे असम समो प्रमणावमाणेसु ॥ से तं नोश्रागमनो भावसामाइए । (श्रनुयो. सू. १५०, पृ. २५५ - ५६ ) । २. नोआगमभावसामायिकं नाम सर्व सावद्ययोगनिवृत्तिपरिणामः | ( भ. प्रा. विजयो. ११६) । ३. सामायिकपरिणतपरिणामादि नोप्रागमभावसामायिकम् । (मूला. वृ. ७- १७) । ४. नोआागमभावसामायिकं पुनद्वविध मुपयुक्त तत्परिणत भेदात् । सामायिकप्राभृतकेन विना सामायिकार्येषूपयुक्तो जीवः उपयुक्तनोप्रागमभावसामायिकम् । राग-द्वेषाद्य भावस्वरूपेण परिणतो जीवस्तत्परिणदनोद्यागमभावसामायिकम् । ( अन. घ. स्व. टी. ८-१९ ) । १ जिसकी श्रात्मा मूलगुणरूप संयम, उत्तरगुणसमूह रूप नियम और अनशनादिरूप तप में संनिहित है; ऐसे जीव के सामायिक होती है। जो त्रस प्रौर स्थावररूप सभी जीवों में सम है-राग-द्वेष से रहित है— उसके केवलिप्ररूपित सामायिक होती है । जिस प्रकार दुःख मुझे प्रिय नहीं है, उसी प्रकार वह सभी जीवों को प्रिय नहीं है; ऐसा जानकर चूंकि साधु न स्वयं जीवघात करता है और न दूसरे से कराता है तथा सबको समान मानता है; इसी से वह समन - सबको समान मानने वाला - कहलाता है । सब जीवों में न कोई ल. ८२ Jain Education International ६४६, जैन-लक्षणावली [नोश्रागमभावस्कन्ध द्वेष्य-द्वेष करने योग्य है और न कोई प्रिय भी है, इसी से वह समन - समान मन वाला है; यह उसका दूसरा भी पर्याय नाम है। जो सर्प के समान दूसरे के श्राश्रय में रहता है, पर्वत के समान परीवह व उपसर्ग के समय प्रडिंग होता है, अग्नि के समान तेजस्वी एवं सूत्र प्रर्थरूप तृणादि के विषय में तृप्ति से रहित होता है, समुद्र के समान गम्भीर व ज्ञानादिरूप रत्नों की खान होता है, श्राकाशतल के समान परालम्बन से रहित होता है. वृक्षसमूह के समान सुख-दुःख का सहने वाला होता है, तथा भ्रमर के समान अनियतवृत्ति, मृग के समान संसारभय से उद्विग्न, पृथिवी के समान कष्ट सहिष्णु, कमल के समान कामभोगों से ऊपर स्थित, सूर्य के समान समभाव से प्रकाश करने वाला, और वायु के समान प्रतिबन्ध से रहित होता है; वह श्रमण कहलाता है । इस प्रकार श्रमण यदि द्रव्यमन की अपेक्षा सुमन - सुन्दर मन वाला और भावमन की अपेक्षा यदि पाप मन वाला नहीं है तो वह स्वजन और अन्य जन तथा मान और अपमान में सम-हर्ष - विषाद से रहित होता । इस प्रकार से ज्ञानक्रियारूप सामायिक के साथ उस सामायिक से युक्त साधु को भी प्रभेदोपचार से नोभागमभावसामायिक कहा जाता है । २ समस्त सावद्ययोग से निवृत्तिरूप जो परिणाम होता है उसे नोश्रागमभावसामायिक कहते हैं । नोप्रागमभावसिद्ध - क्षायिकज्ञान दर्शनोपयुक्तः परिप्राप्ताव्याबाधस्वरूप स्त्रिविष्टप शिखरस्थो नोश्रागमभावसिद्धः । (भ. था. विजयो. १); निरस्तभाव द्रव्यकर्म मलकलङ्क परिप्राप्तसकलक्षायिकभाव: नोश्रागमभावसिद्धः । (भ. आ. विजयो. ४६ ) । १ जिन्होंने सर्व द्रव्यकर्म और भावकर्म को दूर करके समस्त क्षायिक भावों को प्राप्त कर लिया है, ऐसे लोकशिखरस्थ मुक्तात्मा को नोश्रागमभावसिद्ध कहते हैं । नोश्रागमभावस्कन्ध - १. एएसि चैव सामाइन - माइयाणं छण्हं अज्झयणाणं समुदयसमिइसमागमेण श्रावस्सयसुप्रखंधे भावखंधे त्ति लब्भइ, से तं णोप्रागमनो भावखंधे से तं भावखंधे । ( श्रनुयो. सू. ५६, पृ. ४२ ) । २. णोप्रागमतो भावखंधो णाण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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