Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 238
________________ देशसंयम ] श्रादि धर्मों के उपदेशक वचन को देश लत्य कहते हैं । देशसंयम - देखो देशव्रत । १. देशविरते प्रत्याख्यानावरणकषायाणां सर्वघातिस्पर्घ कोदयाभावलक्षणे क्षये तेषामेव हीनानुभागरूपतया परिणतानां सदवस्थालक्षणे उपशमे च देशघातिस्पर्ध कोदयसहिते उत्पन्नं देशसंयम रूपचारित्रं क्षायोपशमिकम् । (गो. जी. म. प्र. १३) । २. देशसंयतापेक्षया प्रत्याख्यानावरणकषायाणाम् उदयागतदेशघातिस्पर्धकानन्तबहुभागानुभागोदयेन सहानुदयागतक्षीयमाणविवक्षितोदयनिषेक सर्व घातिस्पर्धकानन्तबहुभागानामुदया - भावलक्षणक्षये तेषामुपरितन निषेकाणां श्रनुदयप्राप्तानां सदवस्था लक्षणोपशमे च सति समुद्भूतत्वात् चारित्रमोहं प्रतीत्य देशसंयमः क्षायोपशमिकभावः । (गो. जी. जी. प्र. १३ ) । १ प्रत्याख्यानावरण कषायों के सर्वघातिस्पर्धकों का उदयाभावस्वरूप क्षय, हीन अनुभागरूप से परिणत उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और देशघातिस्पर्धकों का उदय होने पर देशविरत (पांचवें ) गुणस्थान में देशर्सयम रूप क्षायोपशमिक चारित्र होता है । देश संवर - शेषकाले (बादर- सूक्ष्मयोगनिरोधकालात् प्राक् ) चरणप्रतिपत्तेरारभ्य देशसंवरपरिणतिभागात्मा भवति । XX X देशसंवरस्तु सामायिकादिचारित्रवतां सत्यपि परिस्पन्दवत्वे विदिततत्त्वानां संसारजलधेरुत्तरीतुमभिवाञ्छतां प्रधानसंवराभावेऽपि न्यस्तसमस्तप्रमादस्थानानां देशसंवरः समस्त्येवेति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६- १) । बादर व सूक्ष्म योगों के निरोध से पूर्व चारित्रप्राप्ति से लेकर प्रात्मा देशसंवर से युक्त हो जाता है । सामायिक श्रादि चारित्र वाले जीव यद्यपि परिस्पन्दन से युक्त होते हैं, फिर भी तत्त्वों के ज्ञाता होकर वे चूंकि संसार से पार होने के इच्छुक होते हैं, इसीलिए प्रधान संबर के न होने पर भी समस्त प्रमादस्थानों का उनके देशसंवर होता ही है । देशस्नान देशस्नानमधिष्ठानशोचातिरेकेणाक्षिपक्ष्मप्रक्षालनमपि । ( वशवे. सु. हरि. वृ. ३२, पृ. ११६)। अधिष्ठान प्रदेश की पवित्रता के अतिरिक्त प्रांखों के पलकों के धोने को भी देशस्नान कहा जाता है । देशाख्यान - तदेकदेशदेशाद्रि-द्वीपान्ध्यादिप्रपञ्च • नम् । देशाख्यानम् । XXX ॥ ( म. पु. ४ - ५ ) | - Jain Education International [देशावका शिकव्रत लोक के एकदेशभूत देश, पर्वत, द्वीप और समुद्रादि का विस्तारपूर्वक कथन करने को देशाख्यान कहते हैं । देशाभिहृत - एकदेशादागतमोदनादिकं देशाभिघटकम् । (मूला. बु. ६-१६ ) । एक वेश से घाये हुये प्रोवन (भात) आदि भोज्य सामग्री के ग्रहण करने को देशाभिघट (देशाभिहृत) दोष कहते हैं । देशामर्शक - जेणेदं सुत्तं देसामासयं, तेण उत्तासेसलक्खणाणि देण उत्ताणि । एदं देसामासियसुत्तं कुदो ? एग देसपदुप्पायणेण एत्थतणसयलत्थस्स सूचयत्तादो । एदं देसामासि यसुत्तं, तेणेदेण आमासयत्थेण अणामासियत्यो उच्चदे । (धव. पु. १, पृ. ८ का टिप्पण नं १ ) जो सूत्र आमृष्ट - स्पृष्ट या विवेचित- अर्थ के साथ उससे सम्बद्ध अन्य समस्त अर्थ का सूचक होता है उसे देशामर्शक कहते हैं । देशावका शिकव्रत - देखो देशविरति । १. देशाव - काशिकं स्यात् कालपरिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ।। ( रत्नक. ६२ ) । २. दिसिव्वयगहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणं परिमाणकरणं देसावगासियं । ( श्राव. ६-१० ) । ३. [ देश: ] दिग्व्रतगृहीतदिक्परिमाणस्यैकदेशः श्रंशः, तस्मिन्नवकाशः - गमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशिकस्तेन निर्वृत्तं देशावकाशिकम् । (श्राव. वृ. ६- १०, पृ. ८३५) । ४. पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणो विसंवरणं । इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं । वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोह - कामसमट्ठ | सावज्जवज्जणट्ठे तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ (कार्तिके. ३६७-६८ ) । ५. देशेऽवकाशो देशावकाशः, तत्र भवं देशावकाशिकम् । इदमुक्तं भवतिपूर्वगृहीतस्य दिव्रतस्य योजनशतादिकस्य यत्प्रतिदिनं संक्षिप्ततरं योजन-गव्यूति-पत्तन- गृहमर्यादादिकं परिमाणं विधत्ते तद् देशावकाशिकमित्युच्यते । (सूत्रकृ.शी. वू. २, ७, ७६, पृ. १८२ ) । ६. देशे विभागे प्राक्प्रतिपन्नदिव्रतस्य योजनशतादिपरिमाणरूपस्य अवकाशो गोचरो यस्य प्रतिदिनं प्रत्याख्येयतया तत्तथा । (ध. बि. मु. वृ. ३-१८) । ७. देशावका शिकं देशे मर्यादीकृत देशमध्येऽपि स्तोकप्रदेशेऽवकाशो नियतकालमवस्थानम्, सोऽस्यास्तीति ५४०, जैन - लक्षणावली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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