Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 415
________________ पुरुषार्थ ] पुरुषार्थ - १. XXX विवरीयं तु पुरुषकारो मुणेयव्वो । ( उपदे. प. ३५०); ग्रहवप्पकम्महेऊ ववसाय होइ पुरिसगारो त्ति । ( उपदे. प. ३५१) । २. विपरीतं तु यदनुदग्रं बहुना प्रयासेन परिणमति पुनस्तत्पुरुषकारो मुणितव्यः । अथवा X X X अल्पं तुच्छं कर्म दैवं पुरुषकारापेक्षया हेतुर्निमित्तं फलसिद्धौ यत्र स तथाविधो व्यवसायः पुरुषप्रयत्नो भवति पुरुषाकार इति । ( उपदे. प. मु. वृ. ३५०, ३५१) । १ देव से विपरीत -- जिसमें बहुत प्रयत्न के द्वारा कर्म सातावेदनीय श्रादिरूप परिणत होता है उसेपुरुषकार या पुरुषार्थ जानना चाहिए। श्रथवा फल की सिद्धि में जहां पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा देव को सहायता अल्प रहती है उसका नाम पुरुषार्थ समना चाहिए । ७१७, जैन-लक्षणावली पुरुषार्थ सिद्धय पाय — विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध्युपायोऽयम् ।। ( पु. सि. १५ ) । विपरीत श्रभिप्राय को नष्ट करके श्रात्मस्वरूप का यथार्थ निश्चय करना और उससे विचलित नहीं होना, यही पुरुषार्थसिद्धि का उपाय है । पुरुषोत्तम—सर्वोत्तमगुणैर्युक्तं प्राप्तं सर्वोत्तमं पदम् । सर्वभूतहितो यस्मात्तेनाऽसौ पुरुषोत्तमः ॥ ( प्राप्तस्व. ३४)। समस्त प्राणियों के हित का अभिलाषी होते हुए जिसने अनेक सर्वोत्कृष्ट गुणों से युक्त उत्तम पद ( कैवल्य अवस्था ) को प्राप्त कर लिया है उसे पुरुषोत्तम समझना चाहिए । पुरोहित - १. पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडंगवेदे देवे निमित्ते दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्तारं कुर्वीत । ( नीतिवा. ११ - १, पू. १६० ) । २. पुरोहितः शान्तिकर्म्मकारी । ( स्थाना. अभय वृ. २४८; व्यव. मलय. वृ. (पी.) द्वि. वि. ३३, पृ. १२) । १ जिसका कुल-शील उत्तम हो तथा जो षडंग वेद, देव ( ज्योतिषशास्त्र ), निमित्तशास्त्र और दण्डनीति में पारंगत होता हुआ दैविक एवं मनुष्य निर्मित पत्तियों का प्रतीकार करने वाला हो वह पुरोहित कहलाता है । राजा को ऐसे पुरोहित के लिए पास Jain Education International [ पुलाक में रखना चाहिए । २ शान्तिजनक अनुष्ठान का कराने वाला पुरोहित कहलाता है । पुलवि - १. प्रवासब्भंतरे संट्टिदाग्रो कच्छउडंडरवक्खारंतोट्ठियपि सिवियाहि समाणाश्रो पुलवियात्र नाम । ( धव. पु. १४, पु. ८६ ) । २. जंबूदीव भरहो कोसल-सागेद-तग्घराई वा । खंधंडर-श्रावासापुलबि - सरीराणि दिट्ठता ।। (गो. जी. १६४) । १ कच्छ उडंडर वक्षार ( ? ) के भीतर पिसिवियों ( ? ) के समान जो श्रावासों के भीतर निगोदजीवस्थान हैं उनका नाम पुलवि है । २ जिस प्रकार जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र, उसमें कोशलदेश, उसमें साकेत नगरी और उसमें घर हैं उसी प्रकार स्कन्ध, उनके भीतर अण्डर, उनके भीतर श्रावास, उनके भीतर पुलवि और उनके भीतर निगोदजीवों के शरीर होते हैं। पुलाक -- १. उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित्पूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धपुलाकसादृश्यात् पुलाका इत्युच्यन्ते । ( स. सि. ६-४६ ; चा. सा. पू. ४५ ) । २. सततमप्रतिपातिनो जिनोक्तादागमान्निर्ग्रन्थपुलाकाः । ( त. भा. ६-४८; XX X पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनविरतिषष्ठानां पराभियोगाद् बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति, मैथुनमित्येके । ( त. भा. ६-४६, पृ. २८७ ) । ३. परिपूर्णव्रता उत्तरगुणहीना पुलाकाः । उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित् परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तः प्रविशुद्धपुलाकसादृश्यात् पुलाकव्यपदेशमर्हन्ति । (त. वा. ६, ४६, १ ) । ४. पुलाका भावनाहीना ये गुणेषूत्तरेषु ते । न्यूना: क्वचित् कदाचिच्च पुलाकाभा व्रतेष्वपि ॥ ( ह. पु. ६४ - ५९ ) । ५. अपरिपूर्णव्रता उत्तरगुणहीनाः पुलाका: ईषद्विशुद्धि लाकसादृश्यात् । (त. ल्लो. ६-४६ ) । ६. पुलाको निःसार इति प्ररूढं लोके । पलञ्जिस्तन्दुलकणशून्या पुलाकः । एवं निर्ग्रन्थोऽपि लब्धिमुत्पन्नां तपः श्रुताभ्यां हेतुभ्यामुपजीवन् सकलसंयमगलनात् पञ्जलिरूपं निःसारमात्मानं करोति । ज्ञानदर्शन - चरणानि च सारः तदपगमान्निःसारः । जिनप्रणीतादागमाद्धेतुतः सदैवाप्रतिपातिनः आगमाश्च सम्यग्दर्शनमूलज्ञान चरणे निर्वाणहेतू इत्यस्मादपरिभ्रष्टाः श्रद्दधाना ज्ञानानुसारेण क्रियानुष्ठायिनो लब्धिममुपजीवन्तो निर्ग्रन्थाः पुलाका भवन्ति । उप For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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