Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 384
________________ परीक्षा ] प्रत्याख्यान के अन्तर्गत अहदि लिंगों में से एक है । परीक्षा -- १. उद्दिष्टस्य लक्षितस्य च यथावल्लक्षणमुपपद्यते न वा इति प्रमाणतोऽर्थावधारणं परीक्षा । ( न्यायकु. १ - ३, पृ. २१) । २. प्रमाणबलात्तल्लक्षणविप्रतिपत्तिपक्षनिरास: परीक्षा । ( लघीय. अभय. वृ. पृ. ६) । ३. विरुद्ध नानायुक्तिप्राबल्य दौर्बल्यावधारणाय प्रवर्तमानो विचारः परीक्षा । ( न्यायदी. पृ. ८) । १ उद्दिष्ट और लक्ष्यभूत वस्तु का लक्षण यथार्थ में घटित होता है या नहीं; इस प्रकार प्रमाण से उसको यथार्थता का विचार करना, इसका नाम परीक्षा है । परीत संसार ( संसारपरीत) १. जिणवयणे प्रणुरता गुरुवयणं जे करंति भावेण । प्रसवल अकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारा ॥ ( मूला. २, ७२) । २. संसारपरित्तेणं, पुच्छा । गोयमा ! जह“णे अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं प्रणतं कालं जाव अवढं पोग्गलपरियट्टु देसूणं । ( प्रज्ञाप. १८, २४७)। ३. यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसार: स संसारपरीतः । X XX संसारपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, तत ऊर्ध्व मन्तकृत्केव लित्वयोगेन मुक्तिभावात् । उत्कर्षतो अनन्तकालम् । तमेव निरूपयति - 'अणताओ' इत्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्ध्वमवश्यं मुक्तिगमनात् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १८-२४७ ) । ४. परीतीकृतसंसारा नाम स्तोकावशेषसंसाराः । ( आव. नि. मलय. वृ. १५, पृ. ४२ ) । ५. परीतः परिमितः संसारो यस्यासौ परीतसंसारिकः । ( बृहक. क्षे. वृ. ७१४)। १ जो जिनेन्द्रदेव के वचनों में अनुरक्त होकर भक्तिपूर्वक गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं तथा - जो मिथ्यात्व से विरहित होते हुए संक्लेशपरिणाम से भी रहित हैं वे परीतसंसारी परिमितसंसार - वाले होते हैं । ३ जिसने सम्यक्त्व आदि के द्वारा - अपने संसार को परिमित कर दिया है, वह संसार परीत या परीतसंसारी हो जाता । वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल और उत्कर्ष से अनन्त काल - कुछ कम पार्ध पुद्गलपरिवर्तकाल तक ही संसार में रहता है- तत्पश्चात् नियम से मुक्त हो जाता है । परीत संसारिक देखो परीतसंसार | परीतानन जं तं परित्ताणंतयं तं तिविहं [ परुषदोष ६८६, जैन - लक्षणावली जणपरित्ताणंतयं प्रजहण्णमणुक्कस परित्ताणंतयं उक्कस्सपरित्ताणंतयं चेदि । X XX जं तं जहण्णपरित्ताणंतयं तं विरलेदूण एक्केक्कस्स रूवस्स जहणपरित्ताणंतयं दादूण प्रष्णोष्ण भत्थे कदे उक्कसपरित्ताणंतयं प्रदिच्छिदूण जहण्णजुत्ताणंतयं गंतूण पदि । एवदिप्रभवसिद्धियरासी । तदो एगरू श्रवणीदे जादं उक्कस्सपरित्ताणंतयं । ( ति. प. ४, पृ. १८२-८३) । परीतानन्त जघन्य, अजघन्य अनुत्कृष्ट और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है । जघन्य परीतानन्त का विरलन कर एक एक अंक के प्रति जघन्य परीतानन्त को देकर परस्पर गुणा करने पर जघन्य युक्तानन्त होता है । उसमें एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्ट परीतानन्त होता है । श्रभव्य जीवराशि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण है । परीवर्त- परीवर्तः श्राम्नायः परिपाटिगणस्वाव्यायः । ( प्रायश्चित्तस. टी. ७-२३ ) । उच्चारण की शुद्धिपूर्वक श्राचार्य परम्परागत परिपाटी के अनुसार स्वाध्याय करने को परीवर्त या आम्नाय नामक स्वाध्याय कहते हैं । परीषहजय-तेषां क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि सुख-दुःख - जीवित-मरण - लाभालाभ - निन्दा - प्रशंसादिसमतारूपपरमसामायिकेन नवतरशुभाशुभकर्मसंवरणचिरन्तनशुभाशुभकर्मनिर्जरणसमर्थनायं निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्दलक्षणसुखामृतसंवित्तेरचलनं स परीषहजयः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५) । भूख प्यास आदि की तीव्र वेदना के उदित होने पर भी सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-लाभ और निन्दा - प्रशंसा आदि में अतिशय समभावी बनकर नवीन कर्मों का संवर और पुरातन कर्मों की निर्जरा करते हुए निजात्मस्वरूप की भावनाजनित निविकार नित्यानन्दस्वरूप स्वानुभूति से चलायमान नहीं होने को परोषहजय कहते हैं । परुष-परुषं रूक्षं स्नेहरहितं (निष्ठुरं ) परपीडाकारि । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, पृ. १६६) । जो वचन रूखा व स्नेह से रहित (निष्ठुर ) होता हुआ दूसरे जीवों को कष्ट पहुंचाने वाला हो उसे परुष वचन कहा जाता है । परुषदोष खड्ढे थेरे सेहे वडे टा Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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