Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 322
________________ निर्वर्तनाधिकरणिकी ] निर्वर्तनाधिकरण और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण । इनमें मूलगुण निर्वर्तन पांच प्रकार का हैशरीर, वचन, मन, प्राण और प्रपान । काष्ठकर्म, पुस्तकर्म और चित्तकर्म श्रादि को उत्तरगुणनिर्तन कहा जाता है । ४ दुष्प्रवृत्तियुक्त शरीर को हिंसा के उपकरणस्वरूप से निर्वर्तित करने का नाम निर्वर्तनाधिकरण है। उपकरण भी जो जीवघात के निमित्त छेदयुक्त रचे जाते हैं उन्हें भी निर्वर्तनाधिकरण कहा जाता है । निर्वर्तनाधिकरणिको - १. यच्चादितस्तयो: (खड्ग-तन्मुष्ट्यादिकयोः) निर्वर्तनं सा निर्वर्तनाधिकरणिकीति । ( स्थाना. अभय वृ. २-६० ) । २. तथा निर्वर्तन मसि-शक्ति कुन्त तोमरादीनां मूलतो निष्पादनम्, तदेवाधिकरणिकी निर्वर्तनाधिकरणिकी, पञ्चविधस्य वा शरीरस्य निष्पादनं निर्वर्तनाधिकरणिकी । प्रज्ञाप. मलय. व. २२-२७६, पृ. ४३६)। १ प्रथमतः तलवार व उसकी मुट्ठी आदि को धनाना, यह निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया कहलाती है । २ तलवार, शक्ति, भाला और बाण आदि के उत्पन्न करने को प्रथवा पांच प्रकार के शरीर के freeier को निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया कहते हैं । निर्वहन - - १. निराकुलं वहनं धारणं निर्वहणम्, परीषाद्युपनिपातेऽप्याकुलतामन्तरेण दर्शनादिपरि तो वृत्तिः । ( भ. प्रा. विजयो. २ ) । २. परीबहाद्युपनिपातेऽपि निराकुलं लाभादिनिरपेक्षं वा वहनं धारणम् । (भ. प्रा. मूला. २) । सम्यग्दर्शनादि का निराकुलतापूर्वक धारण करना तथा परीषह श्रादि के उपस्थित होने पर भी उनमें परिणत रहना -- उनकी विराधना न करना, इसका नाम निर्वहन है । ६२४, जैन - लक्षणावली निर्वाण - १. पारतन्त्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य (पारतन्त्र्यनिवृत्तिलक्षणं निर्वाणम् ) शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपस्य × × ×1 (पंचा. का. अमृत. वू. २ ) । २. सकलकर्मविमोचनलक्षण निर्वाणम् । (पंचा. का. जय. वृ. २) । ३. निर्वान्ति राग-द्वेषोपतप्ताः शीतीभवन्त्यस्मिन्निति निर्वाणम् । (योगशा. स्वो. faa. Y-Yε) I १ परतंत्रता की निवृत्ति प्रथवा शुद्ध प्रात्मतत्व की उपलब्धि को निर्वाण कहते हैं । ३ जहां राग द्वेष Jain Education International [ निर्विकृति से सन्तप्त प्राणी शीतलता को प्राप्त करते हैं उसका नाम निर्वाण है । निर्वाणपथ - देखो निर्वाणमार्ग | सम्मदंसण दिट्ठो नाणेण य सुठु तेहि उवलद्धो । चरणकरणेण पहम्रो निवाण हो जिणिदेहि ।। (श्राव. नि. ६१० ) । जो अरहन्तों के द्वारा समीचीन दर्शन से देखा गया है, ज्ञान के प्राय से यथावस्थित जाना गया है, तथा चरण ( व्रतादि) और करण (पिण्डविशुद्धि आदि) से प्रारावित है; वही मोक्षपथ है । निर्वाणमार्ग - निवृत्तिनिर्वाणम्, सकलकर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखभित्यर्थः, निर्वाणस्य मार्गो निर्वाणमार्ग इति । (श्राव. नि. हरि. वृ. ४, पृ. ७६१) । समस्त कर्मों के क्षय से जो प्रात्यन्तिक सुख प्राप्त होता है, उसका नाम निर्वाण है, इस निर्वाण के सम्यग्दर्शनरूप मार्ग को निर्वाणमार्ग कहते हैं । निर्वाणसुख-संसारसुखमतीत्यात्यन्तिकर्म कान्तिकं निरुपमं नित्यं निरतिशयं निर्वाणसुखम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १० - ७ ) 1 सांसारिक सुख का प्रतिक्रमण करके जो प्रात्यन्तिक, ऐकान्तिक ( प्रविनश्वर), अनुपम, नित्य श्रोर निरतिशय सुख है वह निर्वाणसुख कहलाता है । निर्वापकथा- पक्aापक्वान्नभेदा व्यञ्जनभेदा वेति निर्वापकथेति । XX X पक्कापक्को य होइ निव्वाश्रो । ( स्थाना. अभय वृ. ४, २, २८२ ) । tea या अपक्व श्रन्नभेदों को श्रथवा नाना प्रकार के व्यञ्जनभेदों-शाक व पापड़ आदि रसव्यञ्जक वस्तुत्रों की चर्चा को निर्वापकथा कहते हैं । निविकृति - - १. यथा रूक्षाहारस्य भोजनं तक्रेण वा शक्त्याद्यपेक्षया । विकृतयो रसाः, निर्गता विकृतयो यस्याभुक सा निर्विकृतिः । ( प्रायश्चित्त चू. १, १२) । २. निर्विकृतिः - विक्रियेते जिह्वा मनसी येनेति विकृतिगरसेक्षु रस- फलरस धन्य रसभेदाच्चतुर्षा । तत्र गोरसः क्षीर- घृतादिः, इक्षुरसः खण्डगुडादिः, फलरसः द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैल-मण्डादिः । श्रथवा यद्येन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते । विकृतेनिष्क्रान्तं भोजनं निविकृति । (सा. घ. स्व. टी. ५ - ३५) । २ जिस गोरल, इक्षुरस, फलरस, श्रौर धान्यरस से जिह्वा एवं मन विकार को प्राप्त होते हैं उसे विकृति कहा जता है । अथवा जो जिसके साथ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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