Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 289
________________ नयुत] ५६१, जैन-लक्षणावली निरकगतिप्रायोयानुपूय॑नाम यथा तीथिकानां नित्यानित्यायेकान्तप्रदर्शक सकलं गतिः। (धव. पु. १, पृ. २०१; जस्स कम्मस्स बाक्यम् । (रत्नाकरा. ७-२, पृ. ५)। उदएण णिरयभावो जीवाणं होदि तं कम्मणिरयगदि १परस्पर की अपेक्षा से रहित नैगमादि नयों को त्ति उच्चदि । (घव. पु. ६, पृ. ६७); जं णिरयनयाभास कहा जाता हैं। २ प्रतिपक्ष का निरा-तिरिक्ख-मणुस्स-देवाणं णिवत्तयं कम्मं तं गदिणामं करण करने वाले नव को नयाभास कहते हैं। (जं णिरयभावणिबत्तयं कम्मं तं णि र यगदिणामं)। नयुत-चतुरशीतिन युताङ्गशतसहस्राणि एक नयु, (घव. पु. १३, पृ. ३६३)। ३. जीए उदएण जीवो तम् । (जीवाजी. मलय. व. १७८, प. ३४५)। णे र इयो होइ नरय पुढवीए । सा भणिया नरयगई चौरासी लाख नयतांगों का एक नयत होता है। सेसगईमोवि एमेव ॥ (कर्मवि. ग. ८५)। ४. नयुतान-चतुरशीतिः प्रयुतशतसहस्राणि एक नयु- नारकशब्दव्यपदेश्यपर्यायनिबन्धनं नरकगतिनाम । ताङ्गम् । (जीवाजी. मलय. व. १७८, पृ. ३४५)। (कर्मस्त. गो. व. १०, पृ. १७)। ५. नरकस्य चौरासी लाख प्रयतों का एक नयतांग होता है। गतिर्नरकगतिरात्मनो नारकभावनिमित्तं नामकर्मनर - १. धर्मार्थ-काम-मोक्षकार्यकरणान्नरः । विशेषः। (भ. प्रा. मला. २०६५) । ६. यनिमित्तधर्मार्थ-काम-मोक्षलक्षणानि कार्याणि नणन्ति नय. मात्मनो नारकपर्यायः तन्नरकगतिनाम । (गो. क. न्तीति नराः । (त. वा, २, ५०, १)। २. न नये' जी. प्र. ३३)। ७. यदुदयाज्जीवो नारकशरीरनिनृणन्ति तथाविधद्रव्य-क्षेत्रादिसामग्रीमवाप्य स्वर्गा- पत्तिको भवति तन्नरकगतिनाम । (त वृत्ति श्रुत. पवर्गादिहेतुसम्यग्नय-विनयपरा भवन्तीत्यचि नरा ८-११)। मनुष्याः। (संग्रहणी. दे. वृ. १, पृ. ३)। १ जिस कर्म के निमित्त से जीव के नारकभाव१ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप कार्यों को ले नारक पर्याय-प्राप्त होती है उसे नरकगति नामजाते हैं-उनको पाराधना करते हैं-वे नर कर्म कहते हैं। कहलाते हैं । २ उस प्रकार की द्रव्य-क्षेत्रादिरूप नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम-१. यदा छिन्नासामग्री को पाकर जो स्वर्ग-मोक्ष प्रादि के कारणों युमनुष्यस्तिर्यग्वा पूर्वेण शरीरेण वियुज्यते तदैव में समुद्यत होते हैं उन्हें नर या मनुष्य कहते हैं। नरक भवं प्रत्यभिमुखस्य तस्य पूर्वशरीरसंस्थानानिनरक-१. नरान् कायन्तीति नरकाणि । शीतो- वृत्तिकारणं विग्रहगतावु देति तन्नरकगतिप्रायोग्यानुष्णासवद्योदयापादितवेदनया नरान कायन्ति शब्दा- पूय॑नाम । (त. वा.८, ११, ११)। २. जस्स यन्त इति नरकाणि, नणन्तीति वा। अथवा पाप- कम्मस्स उदएण णिरयगई गयस्स जीवस्स विग्गहकृतः प्राणिनः प्रात्यन्तिकं दुःखं नणन्ति नयन्तीति गईए बट्माणस्स णिरयगइपायोग्गसंठाणं होदि तं नरकाणि । (त. बा. २, ५०, २-३) । २. नरान णिरयगइपायोग्गाणुपुव्वीणाम । (धव. पु. ६, पृ. प्राणिनः कायति पातयति खलीकरोति इति नरकः ७६)। ३. नरयाउअस्स उदए नरए वक्केण गच्छकर्म । (धव. पु. १, पृ. २०१)। ३. को नरकः? माणस्स । नरयाणुपुब्बियाए तहिँ उदमो अन्न हिं परवशता। (रत्नमा. १३) । नत्थि ।। (कर्मवि. ग. १२२)। ४. यस्य कर्मस्कन्ध१ असातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त हुई शीत स्योदयेन नरकगति गतस्य जीबस्य विग्रहगतौ वर्त. व उष्ण प्रादि की वेदना से जो नरों को-जीवों मानस्य नरकगतिप्रायोग्यसंस्थानं भवति तन्नरकको-शब्द कराते हैं-रुलाते हैं वे नरक कहलाते गतिप्रायोग्यानुपूयं नाम । (मूला. बु. १२-१६४)। हैं। प्रथवा जो पाप करने वाले प्राणियों को अति- ५. यद्यत्पूर्वशरीराकारम् अविनाश्य जीवेन सह नरशय दुःख को प्राप्त कराते हैं उन्हें नरक कहा कादि यावदेव बोलापकवद् गच्छति तत् (मानुपूर्वाख्यं जाता है। नाम) नरकादिगतिप्रायोग्यानुपूादिभेदाच्चतुर्विनरकगति नामकर्म-१. यन्निमित्त प्रात्मनो ना- घम् । (भ. प्रा. मूला. २०६५) । रको भावस्तन्नरकगतिनाम। (स. सि. ८-११, १ जो मनुष्य अथवा तियंच प्रायु के क्षीण हो जाने त. वा. ८, ११, २. यस्या उदयः सकलाशभ- से पूर्व शरीर को छोड़कर नारक पर्याय के प्रभिकर्मणामुदयस्य संहकारिकारणं भवति सा नरक- मुख होता है उसके पूर्व शरीर के प्राकार के बने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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