Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 407
________________ पिण्डकल्पिक] ७०६, जैन-लक्षणावली [पिपासासहन मग्रतः पिच्छं प्रतिदर्शयति ततः परिहारः पिच्छमित्यु- खंधपरियंते । गेविज्जमया गीवं अणुद्दिसं हणुपएच्यते । (प्रायश्चित्तस. टी. ६-१८)। सम्मि || विजयं च वैजयंतं जयंतमवराजियं च 'पिच्छ' यह परिहारप्रायश्चित्तिका नाम है। कारण। सम्बत्थं । झाइज्ज मुहपएसे णिलाडदेसम्मि सिद्ध सिइसका यह है कि परिहारप्रायश्चित्त को स्वीकार ला ॥ तस्सुवरि सिद्धणिलयं जहसिहरं जाण उत्तमंगकरने वाला मैं परिहारप्रायश्चित्त वाला हूं' यह म्मि । एवं जं णियदेहं झाइज्जइ तं पि पिण्डत्थं ।। लाने के लिए आगे पिच्छी को दिखलाता है, (वसु. श्रा. ४५६-६३)। ५. पिण्डो देह इति तत्र इसी से परिहार को पिच्छ कहा जाता है। तत्रास्त्यात्मा चिदात्मकः । तस्य चिन्तामयं सद्भिः पिण्डकल्पिक–पढिए य कहिय अहिगय परिहरति पिण्डस्थं ध्यानमीरितम् ॥ (भावसं. वाम. ६६१)। पिंडकप्पितो एसो। तिविहं तीहिं विसुद्धं परिहरन- ६. नाभिपद्मादिरूपेषु ध्यानं स्थानेषु योगिनाम । वगेण भेदेणं ।। (बृहत्कल्प. ५३२) । यदिष्टदेवतादीनां तत्पिण्डस्थं निगद्यते ।। (ग. ग. जो दशवकालिक के अन्तर्गत पिण्डैषणा अध्ययन के ष. स्वो. वृ. २, पृ. १०)। ७. अन्तःकरणसंस्थं अर्थ के कहने, उसके समझ लेने और यच्छरीरे निश्चलं भवेत् । तन्मयत्वादिशुद्धं तत समझकर तदनुसार श्रद्धा के कर लेने पर उद्गम, पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते ॥ (बुद्धिसा. ११७, पृ. २४)। उत्पादन व एषणा दोषों से शुद्ध तथा मन, वचन एवं १ अपने शरीर में पुरुष के आकार जो निर्मल गण काय से विशुद्ध इन परिहारविषयक नौ से परिहार वाला जीवप्रदेशों का समुदाय स्थित है उसके चिन्तन करता है-मन-वचन-काय और कृत-कारित अनु- का नाम पिण्डस्थ ध्यान है। ६ नाभिकमलादिरूप मोदना से अशुद्ध आहार को ग्रहण नहीं करता है स्थानों में जो इष्ट देवता आदिकों का ध्यान किया —वह पिण्डकल्पिक कहलाता है। जाता है, यह योगियों का पिण्डस्थध्यान कहपिण्डप्रकृति-१. एवमेदारो (गदि-जादिपहुडियो) लाता है। यानो बादालीसं पिंडयडीओ। को पिंडो णास ? बहूणं पिता-पाति रक्षत्यपत्यमिति पिता। (उत्तरा. नि. पयडीणं संदोहो पिंडो। (धव. पु. १३, पृ. ३६६)। शा. वृ. ५७)। २. अनेकावान्तरभेदपिण्डात्मकाः प्रकृतयः पिण्डप्रकृ सन्तान के पालन करने वाले को पिता कहते हैं। तयः। (सप्तति. मलय. वृ. ६)। पितामह-यस्य वाक्यामृतं पीत्वा भव्या मुक्ति१ बहुत प्रकृतियों के समूहरूप प्रकृतियां पिण्डप्रकृ मुपागताः । दत्तं येनाभयं दानं सत्त्वानां स पितामहः । कृतियां कहलाती हैं। २ अवान्तर अनेक भेदवाली (प्राप्तस्व. ३६)। कर्म-प्रकृतियों को पिण्डप्रकृति कहते हैं। जिसके वचनाभत को पीकर-उपदेश को हदयंगम पिण्डस्थध्यान-१. जीवपएसप्पचयं पुरिसायारं करके-भव्य जीवों ने मक्ति को प्राप्त किया है हि णिययदेहत्थं । अमलगुणं झायंत झाणं पिंडत्थ तथा जिसने जीवों को अभयदान दिया है, उसे अहिहाणं ।। (भावसं. दे. ६२२) । २. णियणाहि पितामह कहा जाता है। कमलमज्झे परिट्ठियं विप्फुरंतरवितेयं । झाएह अरुह पिपासापरीषहजय-देखो तृषापरीषहजय। पिरूवं झाणं तं मुणह पिंडत्थं ॥ झायह णियकर (?) पासितः पथिस्थोऽपि तत्त्वविन्यजितः । शीतोदक मज्झे भालयले हियय-कंठदेसम्मि । जिणरूवं रवितेयं नाभिलषेन्मृगयेत् कल्पितोदकम् ॥ (प्राव. नि. हरि. पिंडत्थं मुणह झाणमिणं ।। (ज्ञानसार १९-२०)। ३. पिण्डस्थो ध्यायते यत्र जिनेन्द्रो हतकल्मषः । तत् वृ. ६१८, पृ. ४०३)। . पिण्डपञ्चकध्वंसि पिण्डस्थं ध्यानमिष्यते ॥ (अमित. मार्ग में स्थित तत्त्वज्ञ साधु प्यास से पीडित होता श्रा. १५-५३) । ४. सियकिरणविप्फुरतं अट्टमहा हमा भी दीनता से रहित होकर शीतल जल की पाडिहेरपरियरियं । झाइज्जइ जं णिययं पिण्डत्थं इच्छा नहीं करता, किन्तु कल्पित (ग्राह्य) जल की जाण तं झाणं ।। अहवा णाहिं च वियप्पिऊण मेरु हो जो अपेक्षा करता है, यह पिपासापरीषजय । अहोविहायम्मि । झाइज्ज अहोलोयं तिरियम्म तिरि- पिपासासहन—देखो तृषापरीषहजय । १ जनयए वीए॥ उडढम्मि उड़ढलोयं कप्पविमाणाणि स्नानावगाहन-परिषेकपरित्यागिनः पतत्रिवदनियता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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