Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 413
________________ पुनरुक्त] . ... ७१५, जैन-लक्षणाधली [पुरुष ज्वर, कोढ और क्षय आदि रोगों को नष्ट करना अलात (उल्मक), मणि, प्रदीप अथवा ज्योति को और उत्पन्न करना; यह पुद्गलानुभाग--पुद्गलों प्रागे करके प्रेरणा करता हुआ आगे ही देखकर का सामर्थ्य है। योनिप्राभूत में निर्दिष्ट मंत्र-तंत्र जाता है, इसी प्रकार जिस अवधिज्ञान से आगे के शक्तियों को पुद्गलानुभाग जानना चाहिए। देश को ही देखता-जानता है उसे पुरतः अन्तगत पनरुक्त-१. शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम् । अवधिज्ञान कहते हैं। (आव. नि. हरि. वृ. ८८१, पृ. ३७५) । २. शब्दा- पुरस्कार पुरस्कारः सद्भूतगुणोत्कीर्तनं वन्दनार्थयोः पुनर्वचनं पौनरुक्त्यमन्यत्रानुवादात्, अर्थादाप- भ्युत्थानासनप्रदानादिव्यवहारश्च । (प्राव. सू. हरि. नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं च । (प्राव. नि. मलय. वृ. वृ. पृ. ६५८; त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६; पंचसं. ८८१, पृ. ४८३) । - मलय. वृ. ४-२३, पृ. १९०)। १ शब्द व अर्थ के फिर से कहने का नाम पुनरुक्त है। विद्यमान समीचीन गुणों की प्रशंसा करना तथा पुमान्—देखो पुरुष । १. प्रसूते स्वान् पर्यायान् वन्दना करना, उठ कर खड़े हो जाना और प्रासन इति पुमान् । (लघीय. स्वो. वि. ५-४७) । देना; इत्यादि व्यवहार का नाम पुरस्कार है। २. पुंवेदोदयात् सूते जनयत्यपत्यमिति पुमान् । (स. पुराख्यान-भरतादिषु वर्षेषु राजधानीप्ररूपणम् । सि. २-५२; त. वा. २, ५२, १) । ३. प्रसूते जन- पुराख्यानमितीष्टं तत् पुरातनविदा मते ॥ (म. पु. यति स्वानात्मीयान् पर्यायानिनि पुमान् । (न्यायकु. ४-६)। ५-४७, पृ. ६४८) । ४. कुरुते पुरुकर्माणि गर्भ रोप- भरत प्रादि क्षेत्रों में राजधानी का वर्णन करना, यते स्त्रियाम । यतो भजति राभस्यं ज्ञेयः सद्भिस्ततः इसे पुराख्यान कहा जाता है। पूमान । (पंचसं. अमित. १-२००)। पुराण-१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषाश्रिता कथा पुरा१ जो अपनी पर्यायों को अपने जैसी सन्तान को- णम् । (रत्न क.टी. २-२) । २. पुराणं पुराभवउत्पन्न करता है वह पुमान् (पुरुष) कहलाता है। मष्टाभिधेयं त्रिषष्टिशलाकापुरुषकथाशास्त्रम् । पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान-१. पुरो अंतगयं यंदार्षम् -लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थं दानं तपो–से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिनं वा द्वयम् । पुराणस्याष्टधाख्येयं गतयः फलमित्यपि ॥ अलायं वा मणि वा पईवं वा जोइं वा पुरो काउं (अन. ध. स्वो. टी. ३-६)। पणुल्लेमाणे २ गच्छेज्जा, से तं पुरो अंतगयं । १ त्रेसठ शलाकापुरुषों के प्राश्रित कथा का नाम (नन्दी. सू. १०, पृ. ८२) । २. अयमत्र भावार्थः- पुराण है । २ उक्त शलाकापुरुषों के प्राश्रित कथास हि गच्छन उल्काभ्यः सकासात् पुरत एव पश्यति, शास्त्र में इन पाठ का वर्णन होना चाहिए-लोक नान्यत्र; एवं यतोऽवधिज्ञानाद् विविधक्षयोपशमनि- देश, पुर, राज्य, तीर्थ, दान, दोनों तप और गतिमित्तत्वात देशपरत एव पश्यति नान्यत्र तत् पुरतो- रूप फल । ऽन्तगतमभिधीयते, इत्येतावतांशेन दृष्टान्त इत्येवं पुराणस्कन्ध-त्रयः षष्टिरिहार्थाधिकाराः प्रोक्ताः सर्वत्र योज्यम् । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ३२)। महर्षिभिः । कथापुरुषसंख्यायास्तत्प्रमाणानतिक्रमात् ।। ३. यथा कश्चित् पुरुषो हस्तगृहीतया दीपिकया विषष्टयवयवः सोऽयं पुराणस्कन्ध इष्यते । (म. प. पूरतः प्रेर्यमाणया पुरत एव पश्यति, नान्यत्र; एवं २, १२५-२६)। येनावधिना तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरत एव महर्षियों ने पुराण में कथापुरुषसंख्या के अनुसार, संख्येयान्यसंख्येयानि वा योजनानि पश्यति नान्यत्र वहां वर्णनीय शलाकापुरुषों की.. तिरेसठ, संख्या के सोऽवधिः पुरतो ऽन्तगत इत्यभिधीयते । xxx अनुसार---तिरेसठ अर्थाधिकारों का निर्देश किया उक्तं च नन्द्यध्ययनचूर्णी-पुरतो गएणं पुरतो चैव है। इसीलिए वह पुराणस्कन्ध तिरेसठ अवयवों संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ वाला-तिरेसठ अधिकारों से यक्त-माना पासइ। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ५३७)। जाता है। १ जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का (दीपिका), चडु- पुरुष-देखो पुमान् । १. पूर्णः सुख-दुःखानामिति लिका (अन्त में जलती हुई घास की पूलिका), पुरुषः, पुरि शयनाद्वा पुरुष इति । (प्राव. नि. हरि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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