Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 400
________________ पापा ७०२, जैन-लक्षणावली [पापजुगुप्सा पापम् । (पंचा. अमृत. वृ. १०८) । ७. पापं चाशु- सोता है, प्रयत्नपूर्वक भोजन करता है तथा प्रयत्नभकर्मस्वरूपपरिणतपुद्गलप्रचयो जीवस्यासुखहेतुः । पूर्वक भाषण करता है उसके पाप का बन्ध नहीं (मूला. वृ. ५-६) । ८. हिंसादिरशुभपरिणामः पाप- होता है। २ जो प्रयत्नपूर्वक-पागमोक्त विधि से हेतुत्वात् पापम् । (प्रा. मी. वसु. वृ. ४०) । ६.पा- ईर्यासमितिपूर्वक चलता है, प्रयत्नपूर्वक बैठता पम् अशुभं कर्म । (समवा. अभय. वृ. १, पृ. ६)। है-बैठा हुमा हाथ-पांव प्रादि को न फैलाता है न १०. पाशयति गुण्डयत्यात्मानं पातयति चात्मनः सिकोड़ता है, सावधानी से सोता है, यत्नपूर्वक आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् ।(स्थाना. अभय. भोजन करता है, और यत्नपूर्वक भाषण करता है; वृ. १-१२, पृ. १८)। ११. ते (कर्म-पुद्गलाः) एव वह पापकर्म को नहीं बांधता है। इसी प्रकार जो अशुभाः पापम् । (षड्दस. गु. वृ. ४७, पृ. १३७)। सभी प्राणियों को अपने समान देखता है-अपने १२. पात्यवति रक्षति प्रात्मानं कल्याणादिति पापम् । समान ही उनके सुख-दुःख की कल्पना करता है, (त. वृत्ति. श्रुत. ६-३)। १३. XXX पापं वह इन्द्रियों व मनका दमन करता हुआ कर्मासव तस्य विपर्ययः । (विवेकवि. ८-२५१) । १४. पाप- को रोकता है, अतएव वह पापकर्म को नहीं बांधता मशुभप्रकृतिलक्षणम् । (प्रमाल. वृ. ३०५) । १५. है। पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म । (स्याद्वादम. पापकर्मबन्धक-अजयं चरमाणो अ (उ), पाण२७)। १६. xxx पापं दुष्कर्म-पुद्गलाः। भूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुग्रं (षड्दस. राज. १३)। १७. xxx अशुभं फलं ॥ अजयं चिट्रमाणो अ, पाणभयाइ हिंसइ । पापमुच्यते । (अध्यात्मसार १५-६०)। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुग्रं फलं ॥ अजयं १ जो जीव सम्यक्त्व, श्रुत, विरति और कषाय- आसमाणो अ, पाणभूयाइ हिंसइ। बंधई पावयं निग्रह इन गणों के विपरीत मिथ्यात्वादि से परिणत कम्म, तं से होइ कडयं फलं ॥ अजयं सयमाणो अ, है उसे पाप-पाप से संयुक्त (पाप का बन्धक)- पाणभूयाइ हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कहा जाता है । २ अशुभ पुद्गल कर्म को पाप कहते कडुअं फलं ॥ अजयं भुंजमाणो अ, पाण-भूयाइ हैं। ३ जो शुभ से रक्षा करता है-उत्तम कार्य में हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुग्रं फलं ॥ प्रवृत्त नहीं होने देता है-वह पाप कहलाता है। (दशवै. सू. श्लो. ४, १-६, पृ. १५६)। पापकर्म-असुहपयडीयो पावं । तत्थ घाइचउक्कं जो प्रयत्न के विना--सूत्राज्ञा के विपरीत-चलता पावं । अघाइचउक्कं मिस्सं, तत्थ सुहासुहपयडीणं है, बैठता है, बैठा हया भी उपयोग के बिना हाथ संभवादो। (धव. पु. १३, पृ. ३५२)। पैरों को फैलाता व सिकोड़ता है, असावधानी से प्रशभ प्रकृतियों को पाप कर्म कहा जाता है। उनमें दिन में सोता है, निष्प्रयोजन या कौवे आदि से चार घातिकर्म पाप तथा चार अघातिकर्म मिश्र भक्षित भोजन करता है, तथा कठोर आदि भाषण -पाप-पुण्य उभयस्वरूप-हैं, क्योंकि उनमें शुभ करता है। वह दोइन्द्रियादि प्राणियों व एकेन्द्रिऔर अशुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृतियां सम्भव यादि भूतों (जीवों) को पीडित करता है, इसीलिए वह कडुए फलवाले पापकर्म को वांधता है। पापकर्म-प्रबन्धक-१. जदं चरे जदं चिढे जद- पापकर्मोपदेश-देखो पापोपदेश । पापकर्मोपदेशः मासे जदं सये। जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण -कृष्याधुपदेशः प्रयोजनं विनेति । (प्रौपपा. अभय. बज्झइ। (मूला. १०-१२२) । २. जयं चरे जयं वृ. ४०, पृ. १०१)। चिटठे जयमासे जयं सये। जयं भुजंतो भासंतो पावं प्रयोजन के विना ही कृषि प्रादि के उपदेश को कम्मं न बंधइ॥ सव्वभूयप्पभूअस्स सम्म भूयाई पापकर्मोपदेश कहते हैं। पासपो । पिहिआसवस्स दंतस्य पावं कम्मं न बंधइ॥ पापजुगुप्सा-पापजुगुप्सा तु तथा सम्यक्त्वपरि(दशवै. सू. श्लो. ८-६, पृ. १५६)। शुद्धचेतसा सततम् । पापोद्वेगोऽकरणं तदचिन्ता १जो प्रयत्नपूर्वक-प्राणिरक्षा में सावधान होकर- चेत्यनुक्रमतः ॥ (षोडशक. ४-५) । चलता है. प्रयत्नपूर्वक स्थित होता है, प्रयत्नपूर्वक निर्मल अन्तःकरण से निरन्तर पाप से उद्विग्न रहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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