Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 420
________________ पूर्व विदेह] ७२२, जैन-लक्षणावली [पूर्वसंस्तव पांच भावनामों में से एक है। पूर्वसमासावरणीय कहते हैं। पूर्वविदेह-मेरोः सकाशात् पूर्व क्षेत्र पूर्वविदेहः । पूर्वसंस्तव-१. दायगपुरदो कित्ती तं दाणवदी (त. वृत्ति श्रुत. ३-१०)। जसोधरो वेत्ति। पुव्वीसंथु दिदोसा विस्सरिदे बोधणं मेरु पर्वत से पूर्व की ओर जो क्षेत्र है वह पूर्वविदेह चावि ॥ (मूला. ६-३६) । २. माय-पिइ पुव्वसंथव कहलाता है। xxx । गुणसंथवेण पुवि संतासंतेण जो थुणिपूर्वश्रुतज्ञान-एदस्स (वत्थुसमासस्स) उवरि एग- ज्जाहि । दायारमदिन्नंमी सो पुविसंथवो हवइ । क्खरे वड्ढिदे पुव्वं णाम सुदणाणं होदि । (धव. पु. एसो सो जस्स गुणा वियरंति अवारिया दस दिसासु । ६, पृ. २५); पुणो एदस्स (वत्थुसमाससुदणाणस्स) इहरा कहासु सुणिमो पच्चक्खं अज्ज दिट्ठोऽसि ॥ उवरि एगक्खरे वड्ढिदे पुव्वसुदणाणं होदि । Xx (पिण्डनि. ८५ व ६०-६१)। ३. गच्छतामाx पुज्वगयस्स जे उप्पादपुव्वादिचोद्दसअहियारा गच्छतां च यतीनां भवदीयमेव गृहमाश्रय: इतीयं तेसिं पुध पुध पुवसुदणाणमिदि सण्णा । (धव. पु. वार्ता दूरादेवास्माभिः श्रुतेति पूर्व स्तुत्वा या लब्धा १३, पृ. २७१)। सा पूर्वसंस्तवदोषदुष्टा । (भ. पा. विजयो. व मूला. वस्तुसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि २३०) । ४. ददातीति दायको दानपतिः, तस्य पुरतः के होने पर पूर्व नाम का श्रुतज्ञान होता है। कीति ख्यातं ब्रूते । कथम् ? त्वं दानपतिर्यशोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान-तत्र पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं प्रत्या- धरः, त्वदीयकी तिर्विश्रुता लोके, यद्दातुरग्रतो दानग्रहख्यानसंज्ञितं पूर्वम् । (प्राव. नि. मलय. वृ. १०५४; णात् प्रागेव ब्रूते तस्य पूर्वसंस्तुतिदोषो नाम जायते । प. ५७६)। विस्मृतस्य च दानसम्बोधनम्-त्वं पूर्व महादानपतिरिप्रत्याख्यान नामक पूर्व को पूर्वश्रुतप्रत्याख्यान कहा दानी किमिति कृत्वा विस्मृत इति सम्बोधनं करोति जाता है। यस्तस्यापि पूर्वसंस्तुतिदोषो भवतीति। (मला. वृ. पूर्वश्रुतावरणीय -पुव्वसुदणाणस्स जमावारयं ६-३६) । ५. दाता ख्यातस्त्वमित्याद्यैर्यद् गेह्यानन्दकम्मं तं पुव्वावरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. २७६)। नन्दनम् । पूर्व पश्चाच्च भुक्तेस्तत् पूर्वं पश्चात् पूर्व श्रुत के आवारक कर्म को पूर्वश्रुतावरणीय स्तवद्वयम् ॥ (प्राचा. सा. ८-४१)। ६. स्तुत्वा कर्म कहते हैं। दानपति दानं स्मरयित्वा च गृह्णतः । गृहीत्वा स्तुपूर्वसमासश्रुतज्ञान-१. तस्स (पुव्वसुदणाणस्स) वतश्च स्तः प्राक्-पश्चात्संस्तवौ क्रमात् । (अन. ध. उवरि एगक्खरे वड्ढिदे पुव्वसमासो होदि । एवं ५-२४)। ७. अहो जिनदत्त, त्वं जगति विख्यातो पुब्वसमासो गच्छदि जाव लोगबिंदुसारचरिमक्खरं दाता वर्तसे इत्यादिभिर्वचनैर्गृहस्थस्यानन्दजननं भुक्तेः ति। (धव. पु. ६, पृ. २५); उप्पादपुव्वसुदणाण- पूर्व तत्पूर्वस्तवनम् । (भावप्रा. टी. ६६)। स्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे पुव्वसमाससुदणाणं सोदि । १ तुम दानपति हो व तुम्हारी कीति दान के एवमेगेगक्खरुत्तरवड्ढीए पुव्वसमाससुदणाणं वड्माणं विषय में फैली हुई है, अथवा तुम प्रसिद्ध गच्छदि जाव अंगपविलैंगबाहिरसगलसुदणाणक्ख- दाता रहे हो, इस समय तुम उसे कैसे भूल गये राणि सव्वाणि वड्ढिदाणि ति। (धव. पु. १३, पृ. हो, इत्यादि प्रकार से स्तुति करना व विस्मृत २७१) । २. तद्व्यादिसंयोगस्तु पूर्वसमासः । होने पर उसे पुनः सम्बोधित करना; यह पूर्व(शतक. मल. हे. वृ. ३८; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ७)। संस्तुति दोष कहलाता है। वह साधु के आहार१ पूर्व श्रृतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि के विषयक सोलह उत्पादन दोषों में है। २ दान ग्रहण होने पर पूर्वसमासश्रुतज्ञान होता है । २ दो पूर्व करते समय माता-पिता आदि के रूप से परिचय प्रादि के संयोग का नाम पूर्वसमास है। देना, यह पूर्वसंस्तव दोष है; कारण यह कि मातापूर्वसमासावरणीयकर्म - पुव्वसमाससुदणाणस्स पिता आदि पूर्वकालभावी हैं। यह सम्बन्धसंस्तव xxx जमावारयं कम्मं तं पुवसमासावरणीयं । है। वचनसंस्तव इस प्रकार है-दाता से भोजन (धव. पु. १३, पृ. २७६)। प्रादि के ग्रहण करने पर सत्य या असत्य रूप उदाजो पूर्वसमास श्रुत को प्राच्छादित करता है उसे रता आदि गुणों की प्रशंसाविषयक वचनसमूह के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452