Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 299
________________ नारक] ६०१, जैन-लक्षणावली नारकद्रव्यावीचीमरण दीना नारकास्ते निरूपिताः॥ (पंचसं. अमित. को नारक प्राय के रूप में ग्रहण किया है वे द्रव्य १-१३७)। ७. नरानुपलक्षणात्तिरश्चोऽपि, योग्य- प्रत्येक समय में निरन्तर मरते हैं-निषेकक्रम तानतिक्रमेण कायन्त्याकारयन्तीति नारकाः सीमन्त. से क्षीण होते हैं. इसी का नाम नारककालावीचिकादयस्तेष भवाः नारकाः नरकायनरकगत्यादिकर्मो- मरण है। दयवशवर्तिनः । (संग्रहणी दे. वृ. १, पृ. २)। नारकखेत्तावीचिमरण-जे णं णे रइया णेर इयc.xxx ये न रमन्ते--प्रीतिं न भजन्ते न खेत्ते वद्रमाणा जाई दवाइं र इयाउयत्ताए गहिसुख्यन्ति प्रन्योन्यश्च परस्परं च न रमन्ते, तस्मात्त ताई ताई दब्याई प्रावीचि अणुसमयं गिरतर मर. नरताः, नरता एब नारताः, स्वाथिका विधानात्, तीति कटट र इय खेत्ताबीचिमरणं । (उत्तरा. च. इति भणिता: पूर्वसूरिभिः। XXX गतिनाम- ५, पृ. १२७)। कर्मोत्तरप्रकृतिविकल्पो नारकगतिनामकर्म, तदु- नारकक्षेत्र में वर्तमान नारकी जीवों ने जिन द्रव्यों दयाज्जाना: नारकाः। अथवा नरान् कायन्ति कद- को नरकाय के रूप में ग्रहण किया है वे प्रत्येक थंयन्ति क्लेशयन्तीति नरकाणि अधोभूमिगतसीमन्ता- समय में निरन्तर मरते हैं-निषेक क्रम से निर्जीर्ण दिबिलानि, तेषु भवाः नारकाः, सहज शारीर-मानसा होते हैं, इसी को नारकक्षेत्रावीचीमरण कहा गन्तुक-क्षेत्रर्दुःखैनिरन्तरसंक्लेशितपरिणामाः बह्वा- जाता है। रम्भ-परिग्रहत्वाद्यात रौद्रध्यानाजित नारकायु:कर्मो नारक द्रव्यात्यन्तिकमरण-जे र इयदवे घटदयलब्धनारक भववृत्तयः सप्ताधोभूमिगता: पंचेन्द्रिय मीणा जाई दवाई संपयं मरति ताई दवाई अणाजीवाः नारकाः इति संक्षेपतो ज्ञातव्याः । (गो. जी. गते कालेण पुणो ण मरिस्संति तं र इयदव्यातियम. प्र.टी. १४७) । ६.xxx अन्योन्य: सह तियमरणं भवति । (उत्तरा. च. ५, पृ. १२८)। नूतन-पुरातननारका: परस्परं च न रमन्ते, तस्मात् नारकद्रव्य में वर्तमान नारक जीव जो द्रव्य कारणात ते जीवाः नरता इति भणिताः, नरता इस समय मरते हैं-उन्हें छोड़ते हैं-उन्हें भविष्य एव नारताः।xxx अथवा नरकेषु जाता में फिर से नहीं छोड़ेगे, यह नारक द्रव्यान्तिकनारका: xxx अथवा नरान् प्राणिन: कायति घातयति कदर्थयति खलीकरोति बाधत इति नरक मरण कहते हैं। कर्म, तस्यापत्यानि नारकाः, तेषां गति: नारकगतिः। नारकद्रव्यावधिमरण-णेरइया रइयदवे वट. अथवा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावेष अन्योन्येष चारता: माणा जाई संपई मरति, जणं णे रइया ताई दव्बाई नरताः, तेषां गति रतगतिः। (गो. जी. जी. प्र. प्रणागते काले पुणो वि मरिस्संति ने रइए। (उत्तरा. टी. १४७)। चू.५, पृ. १२८)। १ जो नरकों में होते हैं उन्हें नारक कहा जाता है। नारकद्रव्य में वर्तमान नारकी जिन द्रव्यों को इस २जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में तथा परस्पर समय निजीणं कर रहे हैं, प्रागामी काल में फिर में भी नहीं रमते हैं वे नारत या नारक कहलाते भी उन्हीं द्रव्यों को निर्जीर्ण करेंगे, उसे नारक भा उन्हा द्रव्या का निजाण करग, उसे हैं । ३ जो नरों (मनुष्यों-जीवों) को क्लेश पहुं- द्रव्यावधिमरण कहते हैं। चाने वाले नरकों में उत्पन्न होते हैं वे नारक कह- नारकद्रव्यावीचीमरण-जं ने रइया णेरइयदचे लाते हैं। वट्टमाणा जाई दवाइं र इया उयत्ताए गहिताई नारककालावोचिमरण-जणेरइया नेरइयकाले ताई दवाइं प्रावीचि अणुसमयं णिरंतर मरतीति वट्टमाणा जाई दवाइं णेरइयाउयत्ताए गहिताई कटु णे रइयदवावीचिमरणं । (उत्तरा. चु. ५, पृ. ताई दवाइं आवीचि अणुसमयं णिरतरं मरतीति १२७)। कट्ट र इयकालावीचीमरण । (उतरा. च.५, नकद्रव्य में स्तमान नारको जीवों ने जिन द्रव्यों पृ. १२७)। को नारक प्राय के रूप में ग्रहण किया है उनकी नारककाल में वर्तमान नारकी जीवों ने जिन द्रव्यों अपेक्षा प्रतिसमय में मरण होता है-वे प्रत्येक ल.७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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