Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 418
________________ पूज्य] ७२०, जैन-लक्षणावली [पूर्व ८, पृ. १२)। ५. पूजा च सेवाजल्यासनाभ्यु- १ अप्रासुक (सचित्त) से मिश्रित प्रासुक द्रव्य स्थानादिलक्षणा । (योगशा. स्वो. विव. १-५४)। (भोज्य पदार्थ) पूतिदोष से दूषित होता है। २ यदि १ द्रव्य और भाव के संकोच का नाम पूजा है। प्राधाकर्म के अवयव से मिश्रित होने की सम्भावना उनमें हाथ, शिर और पांवों आदि के संकोच को हो तो दिया जाने वाला वैसा अन्नादि पूतिकर्म दोष द्रव्यसंकोच और निर्मल मन के नियमन को भाव- से दुष्ट होने के कारण साधुओं के लिए अग्राह्य संकोच कहा जाता है । ४ चरु, बलि, पुष्प, फल, गन्ध, होता है। ३ अपने गृहनिर्माण के लिए लाये गये धूप और दीप आदि के द्वारा इन्द्रध्वज, कक्ष्पतरु, बहुत से काष्ठ आदि के साथ साधु के लिए लाये महामह और सर्वतोभद्र आदि के माहात्म्य के विधान गये काष्ठादि को मिलाकर जो घर निर्मित किया का नाम पूजा है। जाता है वह पूतिक दोष से युक्त होता है। पूज्य-१. पूज्यः शतेन्द्रवन्द्यांहिनिर्दोषः केवली पूतिकर्मिका-पूतिकमिका आधार्मिकसुधादिना जिनः । (भावसं. वाम. ४६४) । २. पूज्योऽर्हन् पूरितच्छिद्रा । (बृहत्क. क्षे. बू. १७५३) । केवलज्ञान-दृग्वीर्य-सुखधारकः । निःस्वेदत्वादिनैर्म- प्राधाकर्मयुक्त सफेदी आदि के द्वारा जिस सौवीरिल्यमुख्यकैः संयुतो गुणः ॥ (धर्मसं. श्रा. E-३४)। णी (कांजी या अम्लिनी) के छेद भरे गये हैं वह २ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त- पूतिकमिका कहलाती है। सुख के धारक होकर जो निःस्वेदत्व प्रादि गुणों से पूरक-१. द्वादशान्तात् समाकृष्य यः समीरः प्रपूयुक्त हैं वे अरहन्त भगवान् पूज्य हैं—पूजा के यते । स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानकोविदैः ।। योग्य हैं। (ज्ञानार्णव २६-४)। २. समाकृष्य यदापानात् पूति, पूतिक-१. अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूरणं स तु पूरकः । (योगशा. ५-७)। ३. द्वादपूदिकम्मं तं। (मूला. ६-६) । २. पूतिकर्म-संभा- शाङ्गुलपर्यन्तं समाकृष्य समीरणम् । पूरयत्यतिव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम् । (दशवै. सू. यत्नेन पूरकध्यानयोगतः । (भावसं. वाम. ६६७) । हरि. वृ. ५-५५, पृ. १७४)। ३. प्रात्मनो गृहार्थ- ३ वायु को बारह अंगुल पर्यन्त खींचकर जो पूर्ण मानीतैः काष्ठादिभिः सह बहुभिः श्रमणार्थमानीया- किया जाता है उसे पूरक प्राणायाम कहते हैं । ल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते । (भ. पूरिम तलावालि-जिणहराहिट्ठाणादिदव्वं पूरणप्रा. विजयो. २३०; भ. प्रा. मूला. २३०; कार्तिके. किरियाणिप्फण्णं पूरिमं णाम । (धव. पु. ६, पृ. टी. ४४८-४६, पृ. ३३७)। ४. यदाधाकर्माद्यव- २७३)। यवसंमिश्रं तत्पूतीकर्म । (प्राचारा. शी. वृ. २, १, पूरणक्रिया से सिद्ध तालाब के बांध और जिनालय २६६, पृ. ३४७) । ५. प्रासुकमप्यप्रासुकेन सचित्ता- के अधिष्ठान (नीव) आदि द्रव्य को पूरिम कहा दिना मिश्रं यदाहारादिकं पूतिदोषः । (मूला. वृ. जाता है । ६-६)। ६. प्रति प्रासकपात्रादि मिश्रमप्रासकेन पुर्णगेय-यत स्वर-कलाभिः पूर्ण गीयते तत पूर्णम। यत् । मिश्रसंगे हि पाखण्डियतिभ्यो यद्वितीर्यते ॥ (रायप. मलय. वृ. पृ. १३१; जम्बूद्वी. शा. वृ. ६, (प्राचा. सा. ८-२५)। ७. आधार्मिकावयवसं- पृ. ४०)। मिश्रं शुद्धमपि यत्तत् पूतिकर्म शुचिद्रव्य मिवाशुचि- जो स्वर-कलाओं से परिपूर्ण गान गाया जाता है द्रव्यसम्मिश्रम् । (योगशा. स्वो. १-३८) । ८. पूति उसे पूर्णगेय कहते हैं। प्रासु यदप्रासु मिश्रं योज्यमिदं कृतम् । नेदं वा याव- पूर्व-१. चउरासीतिपुव्वंगसयसहस्साइं से एगे दार्येभ्यो नादायि च कल्पितम् ॥ (अन. ध. ५-६)। पुवे । (भगवती. ६, ७, ४, पृ. ८२६; जम्बूद्वी. ६. यदुद्गमकोटिदोषदुष्टसङ्गात् शुद्धमपि अपवित्रं १८, पृ. ८६; अनुयो. सू. १३७, पृ. १७६) । तत्पूतिकर्म । (ग. ग. षट. स्वो. व. २०, पृ. ४८)। २. पव्वस्स दु परिमाणं सदर खलु कोडिसदसहस्सा १०. यत्प्रासुकं पात्रं कांस्यपात्रादिकं मिथ्यादृष्टि- इं। छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा बस्सकोडीणं ॥ प्रातिवेशैमिथ्यागुर्वर्थं दत्तं तत्पात्रस्थमन्नादिकं महा- (स. सि. ३-३१, उद्.; धव. पु. १३, पृ. ३०० मुनीनामयोग्यं पूत्युच्यते । (भावप्रा. टी. ६६)। उद्.; जं. द्वी. प. १३-१२) । ३. पूर्वाङ्गशतसहस्रं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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