Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 395
________________ पल्योपम] ६६७, जैन-लक्षणावली [पश्चात्संस्तव धान्यपल्यवत् पल्यस्तेनोपमा यस्य कालप्रमाणस्य षडङ्गुलप्रमाणं च वायुः पवनसंज्ञितः ॥ (योगशा. तत्पल्योपमम् । (संग्रहणी दे. वृ. ४)। .. ५-५०)। १ एक योजन विस्तीर्ण व गहरे गड्ढे को एक दिन जिसका स्पर्श उष्ण-शीत हो, वर्ण कृष्ण हो और जो के उत्पन्न बालक के बालाग्रकोटियों से भरकर सौ छह अंगुल प्रमाण हो, ऐसी निरन्तर तिरछी बहने सौ वर्ष में एक एक बालान के निकालने में जो वाली वायु को पवन कहते हैं। काल लगता है उतने काल से एक पल्योपम होता पशु-सरोमन्थाः पशवः । (धव. पु. १३, पृ. है। २ व्यवहार, उद्धार और श्रद्धा के भेद से ३६१)। पल्योपम तीन प्रकार का है। उनमें एक दिन से जो तिर्यच प्राणी रोमन्थ सहित होते हैं-घास लेकर सात दिन तक के मेढ़ेके बालाग्नों से-जिनका आदि को खाकर पश्चात् चर्वण करते हैं-वे दूसरा खण्ड न हो सके-भरे गये गड्ढे को व्यवहार- पशु कहलाते हैं। पल्य कहा जाता है । सौ सौ वर्षों के बीतने पर इन पश्चात्संस्तव-१. पच्छा संथुदिदोसो दाणं गहिबालानों में से एक एक रोमखण्ड को निकाला जाय। दूण तं पुणो कित्ति । विक्खादो दाणवदी तुज्झ जसो इस विधि से जितने समय में वह गड्ढा खाली होता विस्सुदो वेति ॥ (मूला. ५-३७) । २. माय-पिइहै उतने समय का नाम व्यवहारपल्योपम होता है। पुव्वसंथव सासू-सुसराइयाण पच्छाउ । गिहिसंथवउक्त रोमखण्डों में से प्रत्येक को असंख्यात करोड़ संबंधं करेइ पुव्वं च पच्छा वा ।। (पिंडनि. ४८५); वर्षों के समयों का जितना प्रमाण हो उतने प्रमाण गुणसंथवेण पच्छा संतासंतेण जो थुणिज्जहि । दायासे खण्डित करके उनसे उक्त गड्ढे को भरना चाहिये, रं दिन्नमी सो पच्छासंथवो होइ॥ (पिण्डनि. इस प्रकार उसे उद्धारपल्य नाम से कहा जाता है। ४६२)। ३. वसनोत्तरकालं च गच्छन् प्रशंसा इसमें से एक एक रोमखण्ड को एक एक समय में करोति पुनरपि वसतिं लप्स्ये इति, एवमुत्पादिता निकालने पर वह जितने समय में खाली होता है (वसतिः) संस्तव-(पश्चात्संस्तव-) दोषदुष्टा । (भ. उतने समय को उद्धारपल्योपम कहा जाता है। प्रा. विजयो. २३०)। ४. पश्चात्संस्तुतिदोषो दानपश्चात् उद्धारपल्य के रोमखण्डों में से प्रत्येक को माहारादिकं गृहीत्वा ततः पुनः पश्चादेव कीति ब्रूतेसौ वर्ष के समयों से खण्डित करके उनसे उक्त गड्ढे । विख्थातस्त्वं दानपतिस्त्वं तव यशो विश्रुतमिति ब्रूते के भरने पर उसका नाम श्रद्धापल्य होता है। उसमें । यस्तस्य पश्चात्संस्तुतिदोषः, कार्पण्यादिदर्शनात् । से एक एक समय में एक एक रोमखण्ड के निकालने (मूला. वृ. ६-३७) । ५. दाता ख्यातस्त्वमित्याद्यैर्यपर जितने समय में वह खाली होता है उतने समय द्रोह्यानन्दनन्दनम् । पूर्वं पश्चात् भुक्तेस्तत् पूर्व पश्चाका नाम प्रद्धापल्योपम होता है। ३ एक योजन संस्तवद्वयम् ॥ (प्राचा. सा. ८-४१)। ६. स्तुत्वा विस्तीर्ण और एक योजन ऊंचे गोल गड्ढे को पल्य दानपति दानं स्मरयित्वा च गलतः । गृहीत्वा स्तुकहा जाता है। इसको एक व अधिक से अधिक सात वतश्च स्तः प्राकपश्चातसंस्तवौ क्रमात ॥ दिन के उत्पन्न हुए बच्चों के शरीर के रोमों से ध. ५-२४) । ७. वसनोत्तरकालं गच्छन् पूनरपि सघन रूप में भर कर उसमें से सौ सौ वर्षों में एक वसति लप्स्य इति यत्प्रशंसति सा पश्चात्संस्तवदुष्टा॥ एक रोम के निकालने पर जितने काल में वह (भ. प्रा. मूला. २३०)। ८. भुक्तेः पश्चात् स्तवनखाली हो जाता है उतने काल को पल्योपम नाम विधानं पश्चात्स्तुतिः। (भावप्रा. टी. 88)। से कहा जाता है। १ दान को ग्रहण करके पश्चात् 'आप प्रसिद्ध हैं, पल्लक-पल्लको नाम लाटदेशे धान्याधारविशेषः । दानपति हैं, आपकी कोति फैली हुई है। इस (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३-३१६)। प्रकार से जो दाता की प्रशंसा की जाती है, यह लाट देश में धान्य रखने के कोठे को पल्लक पश्चात्संस्तुति (संस्तव) नामक एक उत्पादनदोष है। कहते हैं। २ भिक्षा के लिये प्रविष्ट होता हुआ साधु गृहस्थों पवन-उष्ण-शीतश्च कृष्णश्च वहंस्तिर्यगनारतम् । के साथ जो माता-पिता आदि के रूप से पूर्वसंस्तव ल. ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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