Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 290
________________ नरकायु] रहने का कारणभूत जो कर्म विग्रहगति में उदय को प्राप्त होता है उसे नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम कर्म कहते हैं । ३ नारक श्रायु का उदय होने पर मोड़ लेकर नरक में जाते हुए जीव के वहां (मोड़ वाली विग्रहगति में ) नरकानुपूर्वी का उदय होता अन्यत्र ( ऋजुगति में ) उसका उदय नहीं होता । नरकायु - जं नेरइयं नारयभवम्मि तहि घरइ उप । जासु तं निरयाउं हडिसरिसो तस्स उ विवागो ।। ( कर्मवि. ग. ६४ ) । जो कर्म नारकी जीव को उद्विग्न होने पर भी नारक पर्याय में धारण करता है— उसे वहां रोककर रखता है- उसे नरकायु कहते हैं। । उसका विपाक काठ की बेड़ी से समान है । नरत - देखो नारक । द्रव्य क्षेत्र काल-भावेष्वन्योन्येषु च निरताः नरताः । XX X उक्तं च-ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल - भावे य । प्रण्णोष्णेहि जम्हा तम्हा ते णारया भणिया || ( धव. पु. १, पृ. २०२ ) । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव तथा परस्पर में भी रत (प्रीतियुक्त) नहीं होते हैं वे नरत (नारकी) कहे जाते हैं । ५६२, जैन - लक्षणावली नरतगति - देखो नारकगति । तेषां (नरतानां ) गतिर्न रतगतिः । (धव. पु. १. पृ. २०२ ) । नरतों (नारकियों) की गति को नरतगति कहते हैं । नरदेव - से केणट्ठणं भंते एवं बुच्चइ नरदेवा ? गोयमा जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी उप्पण्णसम्मत्ता चक्करयणपहाणा णवणिहिपइणो समिद्धकोसा बत्तीसंरायवरसहस्साणुयातमग्गा सागरवरमेहलाहि पतिणो मणुस्सिदा से तेणठेणं जाव नरदेवा | ( व्याख्याप्र. १२, ६, २, पृ. १७६४-६५) । जो चातुरन्त चक्रवर्ती होकर सम्यक्त्व से सहित, चक्ररत्न के स्वामी, नौ निधियों के अधिपति, वृद्धिगत कोश (खजाना) से सहित, बत्तीस हजार राजानों से श्रनुगत र समुद्र पर्यन्त पृथिबी के पति होते हैं; उन मनुष्यश्रेष्ठों को नरदेव कहा जाता है । नर्तक - गीताङ्गपटप्रावरणेन नृत्यवृत्त्याजीवी नर्तको नाटकाभिनयरङ्गर्तको वा । ( नीतिवा. १४ - १२३, पृ. १७३) । Jain Education International [नागकुमार नृत्य गीत के योग्य शरीर को वेषभूषा के साथ जो वृत्ति से श्राजीविका चलाता है, श्रथवा नाटक की रंगभूमि में नृत्य करता है उसे नर्तक कहते हैं । नलिन - १. XX X तंपि गुणिदव्वं । चउसीदिलक्खवासे णलिणं णामं वियाणाहि । ( ति. प. ४ - २६७) । २. पूर्वं चतुरशीतिघ्नं पर्वाङ्गं परिभा ष्यते । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्गं पर्वमिष्यते ॥ गुणाकारविधिः सोऽयं योजनीयो यथाक्रमम् । उत्तरेष्वपि संख्यानविकल्पेषु निराकुलम् ॥ ××× नलिनाङ्गमतोऽपि च ॥ नलिनं कमलाङ्ग च X XXI ( म.पु. ३,३१६ - २४ ) । ३. चतुरशीतिनलिनाङ्गशतसहस्राणि एकं नलिनम् । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८; ज्योतिष्क मलय. वू. ६६) । १ चौरासी लाख वर्षों से गुणित नलिनांग प्रमाण एक नलिन होता है । ३ चौरासी लाख नलिनांगों का एक नलिन होता है । नलिनाङ्ग – १. पउम चउसीदिहदं णलिणंगं होदि XXX ॥ ( ति प ४ - २६७ ) । २. तत्तो महाल - याणं चुलसीइ चेव सयसहस्साणि । नलिणंगं नाम भवे XXX ॥ ( ज्योतिष्क ६५ ) । ३. चतुरशीतिः पद्मशतसहस्राणि एकं नलिनाङ्गम । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८ ) । ४. महालतारूपसंख्यास्थानादूर्ध्वं महालतानां चतुरशीतिशतसहस्राणि नलिनाङ्गं नाम संख्यास्थानं भवति । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. ६५) । १ चौरासी से गुणित पद्म प्रमाण एक नलिनांग होता है । २ चौरासी लाख महालता प्रमाण एक नलिनाङ्ग होता है । नवमी प्रतिमा - नवमासान् प्रेष्येरप्यारम्भं न कारयतीति नवमी । (योगशा. स्वो विव. ३-१४८, पृ. २७२) । नौवीं प्रतिमा का धारक वह श्रावक होता है जो स्वयं तो आरम्भ करता ही नहीं, पर साथ ही सेवकों से भी नौ महीने प्रारम्भ नहीं कराता है । नागकुमार - १. शिरोमुखेष्वधिक प्रतिरूपाः कृष्णाः श्यामा मृदुललितगतयः शिरस्सु फणिचिह्ना नागकुमाराः । ( त. भा. ४ - ११ ) २. फणोपलक्षिताः नागाः । ( धव. पु. १३, पृ. ३६१ ) । ३. नागकुमारा भूषणनियुक्त नागस्फटारूपचिह्नवरा: । (जीवा , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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