Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 288
________________ नय] ५९०, जैन-लक्षणावली [नयाभास वृत्ति श्रुत. १-३३)। ४२. इत्युक्तलक्षणोऽस्मिन् दस्य समुदाय-समुदायिनोः कथंचिदभेदेन नया एव विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे । तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह प्रमाण नयप्रमाणम् । हरि. व.पु. ६६)। धर्मस्य वाचकश्च यः।। पंचाध्या. १-५०४)। अनन्त धर्मस्वरूप वस्तु के एक अंश के ग्रहण करने ४३. नयनं नीयते ऽने नास्मिन्नस्मादिति वा नयः- वाले ज्ञानों, उनके विषयों अथवा उन नयों को ही अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेद: एकेनैव नयप्रमाण कहा जाता है। कारण यह कि प्रमाणधर्मेण पुरस्कृतेन वस्त्वङ्गीकार इत्यर्थः । (जम्बूद्वी. भूत स्याद्वाद नयों के समदाय रूप है, प्रत.स मदाय शा. वृ.पू. ५)। और समदायी में कथंचित् प्रभेद होने से नयों को २ सधर्मा दृष्टान्त के साथ ही साधर्म्य होने से जो प्रमाण कहना विरुद्ध नहीं है । विमा किसी प्रकार के विरोध के स्याद्वाद रूप । नयवाद-स (नयः) उच्यते कथ्यते अनेनेति नयपरमागम में विभक्त अर्थ (साध्य) विशेष का वादः सिद्धान्तः । (धव. पु. १३, पृ. २८७) । व्यंजक (गमक) होता है उसे नय कहते हैं । 'नीयते नय के प्ररूपक सिद्धान्त को नयवाद कहा जाता है। साध्यते गम्यार्थोऽनेनेति नयो हेतुः' इस निरुक्ति नयविधि-नया नैगमादयः, ते विधीयन्ने निरूप्यके अनुसार प्रकृत नय शब्द यहां हेतु का नामान्तर न्ते सदसदादिरूपेणास्मिन्निति नयविधिः। अथवा है। ३ अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में विरोध नगमादिनयः विधीयन्ते जीवादयः पदार्था अस्मिके विना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की न्निति नयविधिः। (धव. पु. १३, पृ. २८४)। यथार्थता के प्राप्त कराने में समर्थ जो प्रयोग होता सत् असत् प्रादि रूप से जहां नंगमादि नयों का है उसे नय कहा जाता है। ४ नय प्रापक, कारक, निरूपण किया जाता है उसे नयविधि कहते हैं, साधक, निर्वर्तक, निर्भासक, उपलम्भक और व्यंजक अथवा जहां नगमादिनयों के प्राश्रय से जीवादि ये सब समानार्थक शब्द हैं। तदनुसार जो जीवादि पदार्थों का विधान किया जाता है वह नयविधि पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, कराते हैं, साधते हैं कहलाती है। अथवा प्रकाशित करते हैं उन्हें नय समझना चाहिए। ८ ज्ञाता जनों के जो अभिप्राय हुमा करते हैं नयसप्तभङ्गी-विकलादेशस्वभावा हि नयसप्त भङ्गी वस्त्वंशमात्रप्ररूपकत्वात् । (प्र. क. मा. ६, उनका नाम नय है। १४ प्रमाण से परिगृहीत ७४, प.६८२)। वस्तु के एक देश में जो वस्तु का निश्चय होता है विकलादेश स्वभाववाली सप्तभंगी वस्तु के केवल वह नय कहलाता है। एक अंश की प्ररूपणा करने के कारण नयसप्तभंगी नयगति-से कि तं णयगती? २ जण्णं णेगम कहलाती है। संगह-ववहार-उज्जुसुय-सह-समभिरूढ-एवं भूयाणं जा गती ग्रहवा सव्वणया वि जं इच्छंति से तं नयगती। नयान्तराविधि-नयान्तराणि नंगमादिसप्तशतमय भेदाः। ते विधीयन्ते निरूप्यन्ते विषयसाङ्गर्यनिरा(प्रज्ञाप. १६-२०५, पृ. ३२७)। नंगमादि नयों की गति को नयगति कहते हैं। . करणद्वारेण अस्मिन्निति नयान्त रविधिः श्रुतज्ञानम् । अथवा सभी नय जो स्वीकार करते हैं, इसका नाम (धव. पु. १३, पृ. २८४)। नयगति है। विषयसांकर्य का निराकरण करते हए जहां सात नयनक्रिया-स्वयं नयनक्रिया अन्यर्वाऽऽनायनं सौ नयभेदों की प्ररूपणा की जाती है उसे नयान्तरस्वच्छन्दन्तो नयनक्रिया। (त. भा. सिद्ध. बु. विधि कहा जाता है। नयाभास-१. पुनर्भेगमादयो निरपेक्षा परस्परेण स्वयं ले जाना या स्वच्छन्दतापूर्वक दूसरों से ते नयाभासाः इति । (त. भा. सिद्ध. व. १-७)। मंगवाना; यह नयनक्रिया कहलाती है। २. निराकृतप्रतिपक्षस्तु नयाभासः । (प्र. क. मा. प्रमाण-नीतयो नयाः अनन्तधर्मात्मकस्य ६-७४, पृ. ६७६)। ३. स्वाभिप्रेतादशादितरांशा. वस्तून एकांशपरिच्छित्तयः तद्विषया वा ते एक वा पलापी पुनर्नयाभासः। (प्र. न. त.७-२१। प्रमाणं नयप्रमाणम्, नयसमुदायात्मकत्वाद्धि स्याद्वा- ४. नयाभासो नयप्रतिबिम्बात्मा, दुर्नय इत्यर्थः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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