Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 365
________________ परमार्थ काल]. ६६७, जैन-लक्षणावली [परमेश्वर (वि) लोयणेहिं पयासियासेसभुवणेण उज्झियराय- पुनर्भाविकाले संभाविनां निखिलमोह-राग-द्वेषादिदोसेण भव्वाणमणवज्जबुहायरियपणालेण पट्टविद- विविधविभावानां परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम् । दुवालसंगवयणकलावो तदेगदेसो वा। (जयध. पु. अथवानागतकालोद्भवविविधान्त ल्पपरित्यागः शुद्धं १, पृ. ३२५)। निश्चयप्रत्याख्यानम् । (नि. सा. वृ. १०५)। । केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप नेत्रों के द्वारा जिसने संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति होना; यह समस्त लोक को प्रकाशित किया है और जो राग- निश्चय प्रत्याख्यान का कारण है। प्रागामी काल द्वेष दोषों से रहित हो चुका है ऐसे जिनेन्द्र के द्वारा में उत्पन्न होने वाले समस्त राग-द्वेष-मोहादिरूप निर्मल बुद्धि से सम्पन्न प्राचार्यरूप प्रणाली के विविध विकारी भावों के परित्याग को परमार्थद्वारा-आचार्यपरम्परा से---जिस द्वादशांगरूप प्रत्याख्यान कहते हैं। अथवा भावी काल में उत्पन्न अथवा उसके एकदेशरूप वाणी को प्रस्तुत किया गया होने वाले विविध अन्तर्जल्प के परित्याग को शुद्ध है उसे परमानन्द-दोग्रन्थिकप्राभूत कहा जाता है। परमार्थ काल-१. परमार्थकालः वर्तनालिङ्गः परमावगाढरुचि-१. परमावधि-केवलज्ञान-दर्शनगत्यादीनां धर्मादिवत् वर्तनाया उपकारकः । स प्रकाशितजीवाद्यर्थविषयात्मप्रसादाः परमावगादकिस्वरूप इति चेत् उच्यते-यावन्तो लोकाकाशे रुचयः । (त. वा. ३,३६, २)। २. केवलावगमालोप्रदेशास्तावन्तः कालाणवः परस्परं प्रत्यबन्धाः एक- किताखिलार्थगता रुचिः। परमाद्यवगाढासी श्रद्धति कस्मिन्नाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकव्यापिनः मुख्यो- परमर्षिभिः ।। (म. पु. ७४-४४६)। ३. कैवल्यापचारप्रदेशकल्पनाऽभावानिरवयवाः। (त. वा. ५, लोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा । २२, २४, पृ. ४८२)। २. परमट्ठो कालाणू लोय- (प्रात्मानु. १४) । ४. अवधि-सनःपर्यय-केवलाधिकपदेसे हि संठिया णिच्चं । एक्केक्के एक्केक्का अप- पुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् । (उपासका. पृ.. एसा रयणरासिव्व ।। (भावसं. दे. ३१०)। ३. तत्र ११४)। ५. परमावगाढा अवधि-मनःपर्यय-केबलायावन्तो लोकाकाशप्रदेशास्तावन्तः कालाणवः पर- धिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढा । (अन. प. २-६२)। स्परं प्रत्यबन्धा एककस्मिन्नाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या १परमावधि, केवलज्ञान और केवलदर्शन से प्रकालोकव्यापिनो मख्योपचारप्रदेशकल्पनाभावान्निरव- शित जीवादि पदार्थविषयक प्रात्मप्रसन्नता जिनको गया। (चा. सा. प्र. ८०)। ४. वर्तनालक्षणश्च प्राप्त है वे परमावगाढरुचि या परमावगाढसम्यग प्राप्त वे परमाnaam - परमार्थकाल: इति । (बृ. द्रव्यसं. टी. २१)। दृष्टि कहलाते हैं। ५. समयादिरूपसूक्ष्मव्यवहारकालस्य घटिकादिरूप- परमावती–सत्त अवंतीगंगाग्रो सा एगा परमा-' स्थलव्यवहारकालस्य च यद्युपादानकारणभूतकाल- वती। (भगवती. १५-८८, पृ. २०५५)। स्तथापि समय-घटिकारूपेण या विवक्षिता व्यवहार सात अवंती गंगानों के परिमाणवाली गंगा को एक कालस्य भेदकल्पना तया रहितस्त्रिकालस्थायित्वेना परमावती गंगा कहते हैं। .... नाद्यनिधनो लोकाकाशप्रदेशप्रमाणकालाणद्रव्यरूपः परमावधिज्ञान-परमा ओही मज्जाया जस्स परमार्थकालः । (पंचा. जय. व. २६)। णाणस्स तं परमोहिणाणं । किं परमं ? असंखेज्ज१ वर्तना जिसका हेतु है वह परमार्थकाल कहलाता है। जिस प्रकार धर्म प्रादि द्रव्य गति प्रादि के उप लोगमेत्तसंजमवियप्पा । (धव. पु. १३, पृ. ३२३) । जिस ज्ञान को उत्कृष्ट मर्यादा असंख्यात लोक कारक हैं उसी प्रकार यह वर्तना का उपकारक है। लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु परस्पर प्रमाण संयम के विकल्प हैं वह परमावधिज्ञान कह-'' में बन्ध रहित हैं और एक एक प्राकाशप्रदेश लाता है। पर एक एक स्थित होते हुए लोक को व्याप्त परमेश्वर-महत्त्वादीश्वरत्वाच्च यो महत्वरतां करते हैं। गतः। श्रधातुकविनिर्मुक्तस्तं वन्दे परमेश्वरम् ।। परमार्थप्रत्याख्यान-xxx. ततः संसार- (माप्तस्व. २७)। शरीर-भोगतिवेगता निश्चयप्रत्याख्यानस्य कारणम् । जो महत्ता और ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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