Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 359
________________ पदानुसारी] ६६१, जैन-लक्षणावली [पद्मलेश्या पदानुसारी-१. एकपदस्यार्थ परत उपश्रुत्यादौ सूत्रदोषों में ३१वां है । अन्ते मध्ये वा शेषग्रन्थावधारणं पदानुसारित्वम्। पद्म-१. XXXतं पि गुणिदव्वं । चउसी दिल(त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०१; चा. सहा. पृ. क्खवासे पउमं णामं समुद्दिजें।। (ति. प. ४-२६६)। ६३) । २. पदमनुसरति अनुकुरुते इति पदानुसारी २. चतुरशीतिपद्माङ्गशतसहस्राण्येक पद्मम् । (ज्योबुद्धिः । बीजबुद्धीए बीजपदमवगंतूण एत्थ इदं एदे- तिष्क. मलय. वृ. ६७; जीवाजी. मलय. वृ. सिमक्ख राणं लिंगं होदि त्ति ईहिदूण सयलसुदक्खर- १७८) । पदाइमवगच्छंती पदाणुसारी। (धव. पु. ६, पृ. १ चौरासी लाख वर्षों से गुणित पद्मांग प्रमाण एक ६०)। ३. द्वादशांग-चतुर्दशपूर्वमध्ये एक पदं प्राप्य पद्म होता है । २ चौरासी लाख पद्मों का एक पद्म तदनुसारेण सर्वं श्रुतं बुध्यन्ते पादानुसारिणः। नामक संख्याप्रमाण होता है। (मूला. वृ. ६-६६) । ४. जो सुत्तपएण बहुं सुय- पद्मप्रभ-निष्पकतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा मणुधावइ पयाणुसारी सो। (प्रव. सारो. १५०३)। यस्याऽसौ पद्मप्रभः, तथा पद्मशयनदोहदो मातुर्दे ५. पदेन सत्रावयवेनैकेनोपलब्धेन तदनुकलानि पद- तया पूरित इति, पद्मवर्णश्च भगवानिति पद्मप्रभः । शतान्यनुसरन्ति --अभ्यूहयन्तीत्येवंशीला: पदानुसा- (योगशा. स्वो. विव. ३-११४)। रिणः । (प्रौपपा. अभय. वृ. १५, पृ. २८)। निष्पङ्कता को स्वीकार कर-पद्म के पङ्कजत्व से ६. आदावन्ते चैकपदग्रहणात् समस्तग्रन्थार्थस्याव- रहित होकर-उस पद्म को प्रभा के समान प्रभा धारणं यत्र बुद्धौ सा पदानुसारिबुद्धिः। (श्रुतभ. होने से छठे तीर्थकर का नाम पद्म प्रसिद्ध हुआ। टो. ३) ७. पदानुसारी त्वेकपदावगमात् पदान्तरा- इसके अतिरिक्त उक्त तीर्थकर की माता को पद्म णामवगन्ता । (योगशा. स्वो. विव. १-८)। (कमल) शय्या पर सोने का जो दोहला हुआ था ८. या पुनरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तद- उसे देवता ने पूर्ण किया था, इसलिए भी उन्हें वस्थमेव श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी। (प्रज्ञाप. पद्मप्रभ कहा गया है मलय. वृ. २७३, पृ. ४२४; नन्दी. सू. मलय. वृ. पद्ममुद्रा-पद्माकारौ करौ कृत्वा मध्येऽङ्गुष्ठौ १३)। ६. येषां पुनर्बुद्धिरेकमपि सूत्रपदमवधार्य कर्णिकाकारौ विन्यसेदिति पद्ममुद्रा। (निर्वाणक. शेषमश्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहते ते पदानु- पृ. ३२)। सारिबुद्धयः । Xxx जो सुत्तपएण बहुं सुयमणु- कमल के आकार दोनों हाथों को करके उनके बीच धाबइ पयाणुसारी सो। (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५, में कणिका के आकार दोनों अंगूठों की रचना को पृ. ८०)। पामुद्रा कहते हैं। १ किसी एक पद के अर्थ को दूसरे से सुनकर प्रादि, पद्मलेश्या--१. चाई भद्दो चोक्खो उज्जयकम्मो य अन्त अथवा मध्य में शेष समस्त ग्रन्थ के जान लेने खमइ बहुयं पि। साहु-गुरुपूय णिरो लक्षणमेयं तु को पदानुसारी ऋद्धि कहते हैं। ४ जो एक सूत्र- पउमस्स ।। (प्रा. पंचसं. १-१५१; धव. पु. १, पृ. पद के द्वारा बहुत से श्रुत का अनुसरण करता है ३६० उद्; गो. जी. ५१६) । २. सत्यवाक्य-क्षमोउसे पदानसारी कहा जाता है। पेत-पण्डित-सात्विक-दानविशारद-चतुरर्जुगुरु-देवतापूपदार्थदोष-१. पदार्थदोषः यत्र बस्तुपर्यायवाचिनः जाकरणनिरतत्वादि पद्मलेश्यालक्षणम् । (त. वा. पदस्यार्थान्तरपरिकल्पनाऽऽश्रीयते । (प्राव. नि. हरि. ४, २२, १०, पृ. २३६)। ३. कसायाणभागफहयाव..८४, पृ. ३७६)। २. पदार्थदोषो यत्र वस्तुप- णमुदयमागदाणं जहण्णफद्दयपप्हुडि जाव उक्कस्सर्यायवाचिनः पदार्थस्यार्थान्तरपरिकल्पनाश्रयणम, फद्दया त्ति ठइदाणं छब्भागबिहत्ताणं विदियभागो यथा द्रव्य-पर्यायवाचिनां सत्तादीनां द्रव्यादर्था- मंदतरो, तदुदएण जादकसानो पम्मलेस्सा णाम । न्तरपरिकल्पनमुलूकस्य । (प्राव. मलय. वृ. ८८४, (धव. पु. ७, पृ. १०४); अहिंसादिसु कज्जेस पृ. ४८४)। जीवस्स मज्झिमज्जम पम्मलेस्सा कुणइ । वृत्तं च१ वस्तु के पर्यायवाची पद के अन्य अर्थ की कल्पना चाई भद्दो चोक्खो उज्जुवकम्मो य खमइ बहनं पि । करता, दमे पदार्यदोष माना जाता है। यह ३२ गाह-गरुजणग्दो पम्मा परिणो जीनो। (वा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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