Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 325
________________ निर्वृत्त्यक्षर ] समऊणे अप्पप्पणो उक्कस्साग्रम्मि सोहिदे णिव्वतिट्ठाणाण होंति । ( घव. पु. १४, पृ. ३५८ ) । एक समय कम अपने अपने जघन्य निवृत्तिस्थान को अपनी अपनी उत्कृष्ट श्रायु में से कम कर देने पर निवृत्तिस्थान होते हैं । निर्वाक्षर - १. जीवाणं मुहादो णिग्गयस्स सदस्य निव्वत्तिक्खरमिदि सण्णा । ( धव. पु. १३, पृ. २६५ ) । २. कण्ठोष्ठ-ताल्वादिस्थान स्पृष्टतादिकरण प्रयत्न निर्वर्त्यमानस्वरूपं प्रकारादि ककारादिस्वर- व्यजनरूपं मूलवणं तत्संयोगादिसंस्थानं निर्वृ त्यक्षरम् । (गो. जी. जी. प्र. व मं. प्र. टी. ३३३) । १ जीवों के मुख से निकले हुए शब्द का नाम निस्पक्षर है । २ कण्ठ, श्रोष्ठ व तालु श्रादि स्थानों से तथा श्रोष्ठों के परस्पर मिलने श्रादिरूप स्पष्टतादि क्रिया व प्रयत्नों से उत्पन्न होने वाले प्रकारादि स्वर और ककारादि व्यंजनरूप मूल वर्णों को तथा उनके संयोगी प्रक्षरों को निर्वृत्य क्षर कहते हैं । निर्वृत्यपर्याप्त - १. जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति पुण्णगो ताव | ( गो. जी. १२१ ) । २. पज्जति गिद्ध तो मणुपज्जति ण जाव समणोदि । ता व्वित्तिपुण्णो XX X ॥ ( कार्तिके. १३६) । ३. यावत्काल शरीरमपूर्णम् श्रदारिकादित्रय पर्याप्तिरनिष्पन्ना तावदाहार-शरीरपर्याप्तिद्वयकालपर्यन्तं जीवो निर्वृत्यपर्याप्तकः । (गो. जी. मं. प्र. टी. १२१) । ४. यावत् शरीरपर्याप्त्या न निष्पन्नाः तावत्समयोनशरीरपर्याप्तिकालान्तर्मुहूर्त पर्यन्तं निर्वृ - पर्याप्ता इत्युच्यन्ते । निवृत्या शरीरनिष्पत्त्या अपर्याप्ता पूर्णा निवृत्त्यपर्याप्ता इति निर्वचनात् । (गो. जी. जी. प्र. टी. १२१; कार्तिके. टी. १३६ ) । १ जब तक जीव की शरीरपर्याप्ति पुर्ण नहीं होती है तब तक उसे निर्वृस्यपर्याप्त कहा जाता है । निर्वेद - १. नरगो तिरिक्खजोणी कुमाणुसत्तं च निव्वेश्रो । ( दशवं. नि. २०३ ) । २. नरकस्तिर्य - ग्योनिः कुमानुषत्वं च निर्वेद: । ( दशवं. नि. हरि. बृ. २०३, पृ. ११३) । ३. निर्वेदो देह भोगेषु संसारे च विरक्तता । ( म. पु. १०- ५७ ) । ४. निर्वेदो विषयेष्वनभिषङ्गोऽहंदुपदेशानुसारितया यस्य भवति XXX। ( त. भा. सिद्ध. वू. १-३३ पृ. ३४ ) ; Jain Education International [ निर्वेदनीरस निर्वेदो निर्विष्णता शरीर भोग-संसारविषय व मुख्यमुद्वेगः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-७, पू. ६३ ) । ५. देहे भोगे निन्दिते जन्मवासे कृष्टेष्वाशुक्षिप्तवाणास्थिरत्वे । यद्वैराग्यं जायते निष्प्रकम्पं निर्वेदोऽसौ कथ्यते मुक्तिहेतुः । ( प्रमित. श्री. २- ७५ )। ६. निर्वेदो भवादुद्वेजनम् । (ध. बि. मु. वृ. ३-७ ) । ७. निर्वेदो भववैराग्यम् । (योगशा. स्वो विव. २-१५) । ८. संसारवासः कार्रव बन्धनान्येव बन्धवः । संसंवेगस्य चिन्तेयं या निर्वेदः स उच्यते ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६१४ ) । ६. संसार - शरीरभोगेषु विरक्तता निर्वेद: । ( कार्तिके. टी. ३२६ ) । १०. त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणास्तथा । (लाटीसं. ३-८६; पंचाध्या. २ - ४४३ ) । ६२७, जैन- लक्षणावली १ नरक, तियंच अवस्था और कुमानुष पर्याय इन्हें निर्वेद कहा जाता है। यह निवेदनीकथा के प्रसंग में कहा गया है । ३ संसार, शरीर श्रीर इन्द्रियभोगों से होने वाली विरक्ति को निर्वेद कहते हैं । निर्वेदनीकथा - १. णित्रेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवो य । ( भ. प्रा. ६५७) । २. पावाणं कम्मा सुभविवागो कहिज्जए जत्थ । इह य परत्थ य लोए कहा उ णिव्वेयणी नाम || ( दशवं. नि. २०१) ३. निर्वेदनीं तथा पुण्यां भोगवैराग्यकारिणीम् । (पद्मपु. १०६-१३) । ४. निवेद्यते भवादनया श्रोतेति निवेदनी । (दशवे. नि. हरि. व. २०१) । ५. संसार-सरीर भोगेसु वेरग्गुप्वाइणी णिव्वेयणी णाम । उक्तं च - XXX निर्वेगिनीं चाह कथां विरागाम् ।। (धव. पु. १, पृ. १०५ - ६ ) । ६. संसार- शरीर भोग रागजनितदुष्कर्म फलनारकादिदुष्कुल- विरूपांग- दारिद्र्घापमान दुःखादिवर्णनाद्वारेण वैराग्यकथनरूपा निर्वेजनी कथा । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. टी. ३५७) । ७. निव्वेजणीकहाए भणिउजइ परमवेरग्गं । (अंगप. ६६, पृ. २७० ) । १ संसार, शरीर और भोगों में वंराग्य उत्पन्न करने वाली कथा को निवेदनी कथा कहते हैं । २ इस लोक व परलोक में पाप कर्मों के अशुभ फल का कथन करने वाली चर्चा को निवेदनी कथा कहा जाता है । निवेदनीरस - थोपि पमायकयं कम्मं साहिज्जई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452