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कुछ करने को नहीं है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, वह मिला ही हुआ है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, उसे कभी खोया ही नहीं। उसे खोया नहीं जा सकता। वही तुम्हारा स्वभाव है। अयमात्मा ब्रह्म! तुम ब्रह्म हो! अनलहक! तुम सत्य हो! कहां खोजते हो? कहां भागे चले जाते हो? अपने को ही खोजने कहां भागे चले जाते हो? रुको, ठहरो! परमात्मा दौड़ने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा दौड़ने वाले में छिपा है। परमात्मा कुछ करने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा करने वाले में छिपा है। परमात्मा के होने के लिए कुछ करने की जरूरत ही नहीं है-तुम हो ही!
इसलिए अष्टावक्र कहते हैं: चिति विश्राम्य। विश्राम करो। ढीला छोडो अपने को। यह तनाव छोड़ो! कहां जाते? कहीं जाने को नहीं, कहीं पहुंचने को नहीं है।
और चैतन्य में विश्राम...तो तू अभी ही, इसी क्षण, अधुनैव, सुखी, शांत और बंध-मुक्त हो जायेगा।
अनूठा है वचन! नहीं कोई और शास्त्र इसका मुकाबला करता है।
'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है और न तू कोई आश्रम वाला है और न आंख आदि इंद्रियों का विषय है। असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है। ऐसा जानकर सुखी हो।'
अब ब्राह्मण कैसे टीका लिखें! 'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है...।'
अब हिंदू इस शास्त्र को कैसे सिर पर उठायें! क्योंकि उनका तो सारा धर्म वर्ण और आश्रम पर खड़ा है। और यह तो पहले से ही अष्टावक्र जड़ काटने लगे। वे कहते हैं, तू कोई ब्राह्मण नहीं है, न कोई शद्र है. न कोई क्षत्रिय है। यह सब बकवास है। ये सब ऊपर के आरोपण हैं। यह सब राजनीति और समाज का खेल है। तू तो सिर्फ ब्रह्म है; ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय नहीं, शूद्र नहीं!
तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं और न तू कोई आश्रम वाला है।'
और न तो यह है कि तू कोई ब्रह्मचर्य-आश्रम में है कि गृहस्थ-आश्रम में है, कि वामप्रस्थ कि संन्यस्त, कोई आश्रम वाला नहीं है। तू तो इस सारे स्थानों के भीतर से गुजरने वाला द्रष्टा, साक्षी है।
अष्टावक्र की गीता, हिंदू दावा नहीं कर सकते, हमारी है। अष्टावक्र की गीता सबकी है। अगर अष्टावक्र के समय में मुसलमान होते, हिंदू होते, ईसाई होते, तो उन्होंने कहा होता, 'न तू हिंदू है, न तू ईसाई है, न तू मुसलमान है।' अब ऐसे अष्टावक्र को...कौन मंदिर बनाये इसके लिए! कौन इसके शास्त्र को सिर पर उठाये! कौन दावेदार बने! क्योंकि ये सभी का निषेध कर रहे हैं। मगर यह सत्य की सीधी घोषणा है। 'असंग और निराकार त सबका, विश्व का साक्षी है-ऐसा जान कर सुखी हो।'
अष्टावक्र यह नहीं कहते कि ऐसा तम जानोगे तो फिर सखी होओगे। वचन को ठीक से सनना। अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा जान कर सुखी हो!
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः। असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।। सुखी भव! अभी हो सुखी! जनक पूछते हैं, 'कैसे सुख होगा? कैसे बंधन-मुक्ति होगी? कैसे ज्ञान होगा?'
अष्टावक्र: महागीता भाग-1