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________________ प्रस्तावना ३३ -~~-~ في حي های با به مه بیه یه یه کی به ما فيه कारिकामें, अजित जिनकी स्तुति करते हुए, उनके नामको 'परमपवित्र' बतलाया है और लिखा है कि श्रीन भी अपनी सिद्धि चाहनेवाले लोग उनके परम पवित्र नामको मंगलके लिये-पापको गालने अथवा विघ्न-बाधाओंको टालनेके लिये-बड़े आदरके साथ लेते हैं अद्यापि यस्याऽजित-शासनस्य सतां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम् । प्रगृह्यते नाम परम - पवित्रं स्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके ।।७|| जिन अर्हन्तोंका नाम-कीर्तन तक पापोंको दूर करके आत्माको पवित्र करता है उनके शरण में पूर्ण-हृदयसे प्राप्त होनेका तो फिर कहना हो क्या है-वह तो पाप-तापको और भी अधिक शान्त करके आत्माको पूर्ण निर्दोष एवं सुख-शान्तिमय बनानेमें समर्थ है। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने अनेक स्थानोंपर ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शान्ति-निलयः' (१२०) जैसे वाक्योंके साथ अपनेको अर्हन्तोंकी शरणमें अपण किया है। यहाँ इस विषयका एक खास वाक्य उद्धृत किया जाता है, जो शरणप्राप्तिमें कारणके भी स्पष्ट उल्लेखको लिये हुए हैं स्वदोष-शान्त्या.विहितात्म-शान्तिः शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥८॥ इसमें बतलाया है कि वे भगवान् शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं-मैं उनकी-शरण लेता हूँ-जिन्होंने अपने दोषोंकी-अज्ञान,
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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