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द्वितीय अध्याय ॥ २-एक, दो अथवा तीन पास भूख से कम खाना, इस को ऊनोदरी तप कहते हैं।
३-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयसम्बन्धी अभिग्रह (नियम) रखना, इस को वृत्तिसंक्षेप तप कहते है-जैसे-श्री महावीर खामी का चतुर्विध अभिग्रह चन्दनवाला ने पूर्ण किया था।
४-रस अर्थात् दूध, दही, घृत, तैल, मीठा और पक्वान्न आदि सब सरस वस्तुओं का त्याग करना, इस को रसत्याग तप कहते हैं।।
५-शरीर के द्वारा वीरासन और दण्डासन आदि अनेक प्रकार के कष्टों के सहन करने को कायछेश तप कहते हैं।
६-पांचों इन्द्रियों को अपने २ विषय से रोकने को संलीनता तप कहते हैं। __ आभ्यन्तर तप के छः मेद ये हैं कि प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, खाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग, इन का विशेष खरूप इस प्रकार से जानना चाहिये:
१-जो पाप पूर्व किये है उन को फिर न करने के लिये प्रतिज्ञा करना तथा उन पूर्वकृत अपने पापों को योग्य गुरु के सामने कह कर उन की निवृत्ति के लिये गुरु के समीप उस की आज्ञा के अनुसार दण्ड का ग्रहण करना, इस को प्रायश्चित्त तप-कहते हैं।
२-अपने से गुणों में अधिक पुरुष के विनय करने को विनय तप कहते हैं। __३-आचार्य, उपाध्याय, तपखी और दुःखी पुरुषों को अन्न लाकर देना तथा उन को विश्राम (आराम ) देना, इस को वैयावृत्त्य तप कहते है।
४-आप पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना, संशय उत्पन्न होने पर गुरु से पूंछना, पढ़े हुए विषय को वारंवार याद करना और जो कुछ पढ़ा हो उस के तात्पर्य (आशय) को एकाग्र चित्त होकर विचारना तथा धर्मकथा करना, इस को खाध्याय तप कहते हैं।
५-आध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये चार ध्यान कहलाते है, इनमें से पहिले दो ध्यानों का त्याग कर पिछले दो ध्यानों को (धर्मध्यान और शुक्लध्यान को) अंगीकार करना, इस को ध्यान तप कहते हैं । १-इस विषय का वर्णन कल्पसूत्र की टीका मे देखो।
२-अच्छे प्रकार से अध्ययन करने को खाध्याय कहते है, क्योंकि यही स्वाध्याय शब्द का अर्थ है. वह अच्छे प्रकार से पढना तब ही हो सकता है जव कि ऊपर लिखी विधि के अनुसार किया जावे, क्योंकि महाभाष्य आदि प्रन्यो में लिखा है कि-चतुर्मि. प्रकारैविद्योपयुक्ता भवति-आगमकालेन, खाध्यायकालेन, प्रवचनकालेन, व्यवहारकालेन च, इत्यादि, अर्थात् चार प्रकार से विद्या का लाम ठीक रीति से होता है-गुरुमुख से अच्छे प्रकार से पढना, फिर उस को एकान्त मे बैठ कर विचारना, शका रहने पर गुरु से पूछना, फिर उस का खयं वर्णन करना तथा पीछे सभा आदि में उस का व्यवहार करना ॥
३-पहिले दो ध्यानों का त्याग इसलिये कहा गया है कि-ये परिणाम में अति हानिकारक होते है, देखो मार्तध्यानके ४ भेद है-प्रथम अनिष्टार्थसंयोगार्तध्यान अर्थात् इन्द्रियमुख के नाशक अनिष्ट (अप्रिय) शब्दादि विषयों के सयोग न होने की चिन्ता करना, दूसरा-इष्टवियोगार्वघ्यान अर्थात् अपने सुखदायक