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चतुर्थ अध्याय ॥
४७५ फुटकर चिकित्सा-९-चौथिया तथा तेजरा के ज्वर में अगस्त के पत्तों का रस अथवा उस के सूखे पत्तों को पीस तथा कपड़छान कर रोगी को सुंघाना चाहिये तथा पुराने घी में हींग को पीस कर सुंघाना चाहिये ।
१०-इन के सिवाय-सब ही विषम ज्वरों में ये (नीचे लिखे) उपाय हितकारी हैंकाली मिर्च तथा तुलसी के पत्तों को घोट कर पीना चाहिये, अथवा-काली जीरी तथा गुड़ में थोड़ी सी काली मिर्च को डाल कर खाना चाहिये, अथवा-सोंठ जीरा और गुड़, इन को गर्म पानी में अथवा पुराने शहद में अथवा गाढ़ी छाछ मै पीना चाहिये, इस के पीने से ठंढ का ज्वर उतर जाता है, अथवा-नीम की भीतरी छाल, गिलोय तथा चिरायते के पत्ते, इन तीनों में से किसी एक वस्तु को रात को मिगा कर प्रातःकाल कपड़े से छान कर तथा उस जल में मिश्री मिला कर और थोड़ी सी काली मिर्च डाल कर पीना चाहिये, इस के पीने से ठंढ के ज्वर में बहुत फायदा होता है।
स्मरण रहे कि-देशी इलाकों में से वनस्पति के काय के लेने में सब प्रकार की निर्मयता है तथा इस के सेवन में धर्म का संरक्षण भी है क्योंकि सब प्रकार के काढ़े ज्वर के होने पर तथा न भी होने पर प्रति समय दिये जा सकते है, इस के अतिरिक्त इन से मल का पाचन होकर दस्त भी साफ आता है, इस लिये इन के सेवन के समय में साफ दस्त के आने के लिये पृथक् जुलाब आदि के लेने की आवश्यकता नहीं रहती है, तात्पर्य यह है कि-वनस्पति का काथ सर्वथा और सर्वदा हितकारी है तथा साधारण चिकित्सा है, इसलिये जहां तक हो सके पहिले इसी का सेवन करना चाहिये।
सन्तत ज्वर (रिमिटेंट फीवर) का विशेष वर्णन ॥ कारण-विषमज्वर का कारण यह सन्ततज्वर ही है जिस के लक्षण तथा
१-इस के अगस्त्य, वगसेन, मुनिपुष्प और मुनिम, ये संस्कृत नाम है, हिन्दी मे इसे अगस्त अगस्त्रिया तथा हथिया भी कहते हैं, वगाली में-वक, मराठी मे-हदगा, गुजराती मै अगथियों तथा अग्रेजी में प्राण्डी फलोरा कहते हैं, इस का वृक्ष लम्बा होता है और इस पर पत्तेवाली घेलें अधिक चढती है, इस के पत्ते इमली के समान छोटे २ होते हैं, फूल सफेद, पीला, लाल और काला होता है अर्थात् इस का फूल चार प्रकार का होता है तथा वह (फूल) केसूला के फूल के समान वाका (टेढ़ा) और उत्तम होता है, इस वृक्ष की लम्बी पतली और चपटी फलिया होती हैं, इस के पत्ते शीतल, रुक्ष, वातकर्ता और कडुए होते हैं, इस के सेवन से पित्त, कफ, चौथिया ज्वर और सरेकमा दूर हो जाता है।
२-यह सर्वतन्त्र सिद्धान्त है कि-वनस्पति की खुराक तथा रुपान्तर में उस का सेवन प्राणियों के लिये सर्वदा हितकारक ही है, यदि वनस्पति का काय आदि कोई पदार्थ किसी रोगी के अनुकूल न भी आवे तो उसे छोड देना चाहिये परन्तु उस से शरीर में किसी प्रकार का विकार होकर हानि की सम्भावना कभी नहीं होती है जैसी कि अन्य रसादि की मात्राओं आदि से होती है, इसी लिये ऊपर कहा गया है कि जहा तक हो सके पहिले इसी का सेवन करना चाहिये।