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तृतीय अध्यायः॥
१२१ संसार आनन्दमय लगता है, घर और कुटुम्ब शोभा को प्राप्त होता है, उसी से माता पिता के मुखपर सुख और आनन्द की आभा (रोशनी) झलकती है उसी की कोमल प्रभा से स्त्री पुरुष का जोड़ा रमणीक लगता है, तात्पर्य यह है कि आरोग्यावस्था में तथा हर्ष के समय में बालक को दो घड़ी खिलाने तथा उस के साथ चित्त विनोद के आनन्द के समान इस संसार में दूसरा आनन्द नहीं है, परन्तु स्मरण रहना चाहिये कि-आरोग्य, सुशील, सुघड़ और उत्तम सन्तान का होना केवल माता पिता के आरोग्य और सदाचरण पर ही निर्भर है अर्थात् यदि माता पिता अच्छे; सुशील; सुघड़ और नीरोग होंगे तो उन के सन्तान भी प्रायः वैसे ही होंगे, किन्तु यदि माता पिता अच्छे, सुशील, सुघड़
और नीरोग नहीं होंगे तो उन के सन्तान भी उक्त गुणों से युक्त नहीं होंगे। ___ यह भी बात स्मरण रखने के योग्य है कि-बालक के जीवन तथा उस की अरोगता के स्थिर होने का मूल (जड़) केवल बाल्यावस्था है अर्थात् यदि सन्तान की बाल्यावस्था नियमानुसार व्यतीत होगी तो वह सदा नीरोग रहेगा तथा उस का जीवन भी सुख से कटेगा, परन्तु यह सब ही जानते हैं कि-सन्तान की बाल्यावस्था का मुख्य मूल और आधार केवल माता ही है, क्योंकि जो माता अपने वालक को अच्छी तरह संभाल के सन्मार्ग पर चलाती है उस का बालक नीरोग और सुखी रहता है तथा जो माता अपने सन्तान की बाल्यावस्था पर ठीक ध्यान न देकर उस की संभाल नहीं करती है और न उस को सन्मार्ग पर चलाती है उस का सन्तान सदा रोगी रहता है और उसको सुख की प्राप्ति नहीं होती है, सत्य तो यह है कि-बालक के जीवन और मरण का सब आधार तथा उस को अच्छे मार्ग पर चला कर बड़ा करना आदि सब कुछ माता पर ही निर्भर , है, इसलिये माता को चाहिये कि बालक को शारीरिक मानसिक और नीति के नियमों के . अनुसार चला कर बड़ा करे अर्थात् उसका पालन करे।
परन्तु अत्यन्त शोक के साथ लिखना पड़ता है कि इस समय इस आर्यावर्त देश में उक्त नियमोंको भी मातायें बिलकुल नहीं जानती हैं और उक्त नियमों के न जानने से वे
१-क्योंकि नीतिशास्त्रों में लिखा है कि-"अपुत्रस्य गृह शून्यम्" अर्थात् पुनरहित पुरुष का घर शून्य है।
२-माता पिता और पुत्र का सम्बन्ध वास्तव में सरस वीज और वृक्ष के समान है, जैसे जो घुन मावि जन्तुओं से न खाया हुआ तथा सरस वीज होता है तो उससे मुन्दर; सरस और फूला फला हुआ वृक्ष उत्पन्न हो सकता है, इसी प्रकार से रोग आदि दूषणो से रहित तथा सदाचार आदि गुणो से युक्त माता पिता भी सुन्दर, बलिष्ठ; नीरोग और सदाचारवाले सन्तान को उत्पन्न कर सकते है।
३-क्योंकि लिखा है कि-आहाराचारचेष्टभिर्याशीभि समन्वितौ । स्त्रीपुसौ समुपेयाता तयो पुत्रोऽपि तादृशः॥१॥ अर्थात् जिस प्रकार के आहार आचार और चेष्टाओं से युक्त माता पिता परस्पर सहम करते हैं उन का पुत्र भी वैसा ही होता है ॥१॥
४-इसी लिये पिता की अपेक्षा माता का दर्जा धड़ा माना गया है।
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