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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ बस इसी प्रकार जबतक वह जीव संसार में भ्रमण करता है तबतक उस के उक्त सूक्ष्म शरीर का अभाव नहीं होता है किन्तु जब वह मुक्त होकर शरीर रहित होता है तथा उस को जन्ममरण और शरीर आदि नहीं करने पड़ते है तथा जिस के राग द्वेष और मोह आदि उपाधियां कम होती जाती हैं उस के पूर्व सञ्चित कर्म शीघ्रही छूट जाते है, परन्तु सरण रखना चाहिये कि-संसारके सब पदार्थों का और आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान होनेसेही राग द्वेष और मोह आदि उपाधियां कम होती हैं तथा यदि किसी वस्तुमें ममता न रख कर सद्भाव से तप किया जावे तो भी सब प्रकार के कर्मों की उपाधियां छूट जाती हैं तथा जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है, जबतक यह जीव कर्मकी उपाधियों से लिप्त है तबतक संसारी अर्थात् दुनियां दार हैं किन्तु कर्मकी उपाधियों से रहित होने पर तो वह जीव मुक्त कहलाता है, यह जीव शरीर के संयोग और वियोग की अपेक्षा अनित्य है तथा आत्मधर्म की अपेक्षा नित्य है, जैसे दीपकका प्रकाश छोटे मकान में संकोच के साथ तथा बड़े मकान में विस्तार के साथ फैलता है उसी प्रकारसे यह आत्मा पूर्वकृत कर्मों के अनुसार छोटे बड़े शरीर में प्रकाशमान होता है, जब यह एक जन्म के आयुःकर्म की पूर्णता होनेपर दूसरे जन्म के आयुका उपार्जन कर पूर्व शरीर को छोड़ता है तब लोग कहते हैं कि-अमुक पुरुष मर गया, परन्तु जीव तो वास्तव में मरता नहीं है अर्थात् उस का नाश नहीं होता है हां उस के साथ में जो स्थूल शरीर का संयोग है उस का नाश अवश्य होता है । १-गर्भ स्थिति के पीछे सात दिन में वह वीर्य और शोणित गर्भाशय में कुछ गाढा हो
जाता है तथा सात दिन के पीछे वह पहिले की अपेक्षा अधिकतर कठिन और पिण्डाकार होकर आमकी गुठली के समान हो जाता है और इसके पीछे वह पिण्ड कठिन मांसप्रन्थि बनकर महीने भर में बजन (तौल ) में सोलह तोले हो जाता है, इस लिये प्रथम महीने में स्त्रीको मधुर शीत वीर्य और नरम आहार का विशेष
उपयोग करना चाहिये कि जिससे गर्म की वृद्धि में कुछ विकार न हो। २-दूसरे महीने में पूर्व महीने की अपेक्षा भी कुछ अधिक कठिन हो जाता है, इस लिये इस महीने में भी गर्भ की वृद्धि में किसी प्रकार की रुकावट न हो इस लिये
ऊपर कहे हुए ही आहार का सेवन करना चाहिये। ३-तीसरे महीने में अन्य लोगोंको भी वह पिण्ड बड़ा हो जाने से गर्भाकृतिरूप मालम
१-जैसा कि भगवद्गीता में भी लिखा है कि नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैन दहति पावकः ॥ न चैन, क्लेदयन्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ १-१ अर्थात् इस जीवात्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अमि जला सकता है, न जल मिगो सकता है और न वायु इस का शोषण कर सकता है-तात्पर्य यह है किजीवात्मा निस और अविनाशी है ॥ ,