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चतुर्थ अध्याय
२०१ छ: रैस ॥ पहिले कह चुके है कि आहार में स्थित जो रस है उस के छः मेद है अर्थात् मीठा, खट्टा, खारा, तीखा, कडुआ और कपैला, इनकी उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है कि-पृथ्वी तथा पानी के गुण की अधिकता से मीठा रस उत्पन्न होता है, पृथ्वी तथा अमि के गुण की अधिकता से खट्टा रस उत्पन्न होता है, पानी तथा अनि के गुण की अधिकता से खारा रस उत्पन्न होता है, वायु तथा अमि के गुण की अधिकता से तीखा रस उत्पन्न होता है, वायु तथा आकाश के गुण की अधिकता से कडुआ रस उत्पन्न होता है और पृथ्वी तथा वायु के गुण की अधिकता से कषैला रस उत्पन्न होता है ।
छओं रसों के मिश्रित गुण ॥ मीठा खट्टा और खारा, ये तीनों रस वातनाशक है । मीठा कडुआ और कषैला, ये तीनों रस पित्तनाशक हैं । तीखा कडुआ और कपैला, ये तीनों रस कफनाशक है ॥ कषैला रस वायु के समान गुण और लक्षणवाला है ॥ तीखा रस पित्त के समान गुण और लक्षणवाला है। मीठा रस कफ के समान गुण और लक्षणवाला है ॥
__ छओं रसों के पृथक् २ गुण ॥ मीठा रस-लोहू, मांस, मेद, अस्थि (हाड़) मज्जा, ओज, वीर्य तथा स्तनों के दूध को बढाताहै, आँख के लिये हितकारी है, वालों तथा वर्ण को खच्छ करता है, बलवर्धक है, टूटे हुए हाड़ों को जोड़ता है, बालक वृद्ध तथा जखम से क्षीण हुओं के लिये हितकारी है, तृषा मूर्छा तथा दाह को शान्त करता है सब इन्द्रियों को प्रसन्न करता है और कृमि तथा कफ को बढाता है ।
इस के अति सेवन से यह-खांसी, श्वास, आलस्य, वमन, मुखमाधुर्य (मुख की मिठास), कण्ठविकार, कृमिरोग, कण्ठमाला, अर्बुद, लीपद, बस्तिरोग (मधुप्रमेह आदि मूत्र के रोग) तथा अमिप्यन्द आदि रोगों को उत्पन्न करता है ।
खधा रस आहार, वातादि दोप, शोथ तथा आम को पचाता है, वादी का नाश करता है, वायु मल तथा मूत्र को छुड़ाता है, पेटमें अमिको करता है, लेप करने से ठंढक करता है तथा हृदयको हितकारी है।
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१-दोहा-मधुर अम्ल अरु लवण पुनि, कटुक कपैला जोय ॥
और तिक जग कहत है, पट् रस जानो सोय ॥१॥