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जैनसम्प्रदायशिक्षा . ७-जीविका वा वृत्ति-बहुत सी जीविका वा वृत्तियें (रोज़गार ) भी ऐसी है जो कि शरीर को रोग के योग्य बनानेवाले कारण बन जाती हैं, जैसे देखो! सब दिन बैठ कर काम करनेवालों, आंख को बहुत परिश्रम देनेवालों, कलेजा और फेफसा दवा रहे इस प्रकार बैठकर काम करने वालों, रंग का काम करने वालों, पारा तथा फास. 'कैसा ही उत्तम क्यों न हो तो भी वे लोग आकर लड़की वाले से बहुत अप्रशंसा तया निन्दा कर देते है जिस के कारण परस्पर सम्वष नहीं होता है और यदि दैवयोग से सम्बंध हो भी आता है तो पति पनियों में परस्पर प्रेम नहीं रहता है क्योंकि वे (वर और कन्या) माट आदि के द्वारा एक दूसरे को निन्दा सुने हुए होते हैं, इन्हीं अप्रवन्धों और परस्पर के द्वेष के कारण बहुधा मनुष्य नाना प्रकार की कुबालों में पड़ गये और उन्हों ने अपनी मर्धाङ्गिनी रूप बहुतेरी बालिकाओं को जीते जी रंडापे का खाद चखा दिया, इधर नाई वारी और पुरोहित आदि के दुखडे का तो रोना है ही परन्तु उधर एक महान् शोक का स्थान
और भी है कि माता पिता आदि भी न पुत्र को देखते हैं और न पुत्री को देखते हैं, हा यदि आखें खोल कर देखते हैं तो यही देखते हैं कि कितना रुपया पास है और क्या २ माल टाल है किन्तु पुत्र और पुत्री चाहे चोर और ज्वारी क्यों न हो, चाहे चमन धन को दो ही दिन में उड़ा दें और बाहें लड़की अपने फूहरपन से गृह को पति के वाले जेलताना ही क्यों न बना दे परन्तु इस भी उन्हें कुछ भी चिन्ता नहीं होती है, सब पूछो तो यही कहा जा सकता है कि वे विवाह को पुत्र के साथ नहीं वरन धन के साथ करते हैं, जब उन की कोई बुराई प्रकट होती है तब कहते हैं कि हम क्या करें, हमारे यहां तो सदा से ऐसा ही होता चला आया है, प्रिय महाशयो ! देखिये ! इधर माता पिता आदि की तो यह लीला है, अब उधर शास्त्रकार क्या कहते हैं-शास्त्रकारो का कथन है कि चाहें पुत्र और पुत्री मरणपर्यन्त कुमारे (अविवाहित) ही क्यों न रहें परन्तु असदश अर्यात परस्परविरुद्ध गुण कर्म और खभाव वालों का विवाह नहीं करना चाहिये इत्यादि, देखिये । प्राचीन काल में आप के पुरुषा लोग इसी शास्त्रोक आता के अनु. सार अपने पुत्र और पुत्रियों का विवाह करते थे, जिस का फल यह था कि उस समय में यह ग्रहत्याश्रम खर्गधाम की शोभा को दिखला रहा था, शास्त्रकारों की यह भी सम्मति है कि जो स्त्री पुरुष विद्या
और अच्छी शिक्षा से युक्त एक दूसरे को अपनी इच्छा से पसन्द कर विवाह करते है चे ही उत्तम सन्तानों को उत्पन्न कर सदा प्रसन्न रहते हैं, इस कथन का मुख्य तात्पर्य यही है कि इन अपर कहे हुए गुणों में जिस स्त्री से जिस पुरुष को और जिस पुरुष से जिस स्त्री को अधिक मानन्द मिले उन्हीं को परस्सर विवाह करना चाहिये, (देखो ! श्रीपाल राजा का प्राकृत चरित्र, उस में इस का वर्णन माया है) शाल कार यह भी पुकार २ कर कहते हैं कि अति उत्तम विवाह वही है कि जिस में तुल्य स्म और खभाव आदि गुणों से युक्त कन्या और वर का परस्पर सम्बन्ध हो तथा कन्या से वर का कल और आयु वृना वा ब्योढ़ा तो अवश्य हो, परन्तु अफसोस का विषय तो यह है कि-शान चे आव कल न कोई देखता और न कोई सुनता ही है, फिर इस दशा में शास्त्रों और शास्त्रकारों की सम्मति प्रत्येक विषय में कैसे मालम हो सकती है ? बस यही कारण है कि-विवाहविषय में शास्त्रीय सिद्धान्त हात न होने से अनेक प्रकार की कुरीतियां प्रचलित हो गई और होती जाती है, जिन का वर्णन करते हुए अतिखेद होता है, देखिये । विवाह के विषय में एक यह और भी बड़ी भारी कुरीति प्रचलित है कि