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चतुर्थ अध्याय ||
यह खैंचतान निद्रावस्था (नींद की हालत ) और एकाकी ( अकेले ) होने के समय में नही होती है किन्तु जब रोगी के पास दूसरे लोग होते है तब ही होती है तथा एकाएक ( अचानक ) न होकर धीरे २ होती हुई मालूम पड़ती है, रोगी पहिले हँसता है, बकता है, पीछे इसके भरता है और उस समय उस के गोला भी ऊपर को चढ जाता है, बैंचतान के समय यद्यपि असावधानता मालूम होती है परन्तु वह प्रायः अन्त में मिट जाती है ।
महात्मा, परोपकारी (दूसरों का उपकार करनेवाले) और सलवादी ( सत्य बोलनेवाले ) थे तथा उन का वचन इस भव (लोक) और पर भव ( दूसरा लोक) दोनों में हितकारी ( भलाई करनेवाला) है, इसी लिये हम ने भी इस ग्रन्थ में उन्हीं महात्माओं के वचनो को अनेक शास्त्रों से लेकर सप्रहीत ( इकट्ठा) किया है, किन्तु जिन लोगों ने उक्त महात्माओं के वचनों को नहीं माना, वे अविद्या के उपासक समझे गये और उसी के प्रसाद से वे धर्म को अधर्म, सत्य को असत्य, असत्य को सल, शुद्ध को अशुद्ध, अशुद्ध को शुद्ध, जड को चेतन, चेतन को जड तथा अधर्म को धर्म समझने लगे, बस उन्हीं लोगों के प्रताप से आज इस पवित्र गृहस्थाश्रम की यह दुर्दशा हो रही है और होती जाती है तथा इस आश्रम की यह दुर्दशा होने से इस के आश्रयीभूत ( सहारा लेनेवाले) शेष तीनों आश्रमों की दुर्दशा होने में आचर्य ही क्या है ? क्योंकि - " जैसा आहार, वैसा उद्गार" बस - हमारे इस पूर्वोक ( पहिले कहे हुए) वचन पर थोड़ा सा ध्यान दो तो हमारे कथन का आशय ( मतलव ) तुम्हें अच्छे प्रकार से मालूम हो जावेगा । ( प्रश्न ) आपने भूत प्रेत आदि का केवल वहम बतलाया है, सो क्या भूत प्रेत आदि है ही नहीं ? (उत्तर) हमारा यह कथन नहीं है कि-भूत प्रेत आदि कोई पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि हम सब ही लोग शास्त्रानुसार स्वर्ग और नरक आदि सब व्यवहारो के माननेवाले है अतः हम भूत प्रेत आदि भी सब कुछ मानते हैं, क्योंकि जीवविचार आदि ग्रन्थों में व्यन्तर के आठ भेद कहे हैं-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व, इस लिये हम उन सब को यथावत् ( ज्यों का त्यां) मानते है, इस लिये हमारा कथन यह नहीं है कि भूत प्रेत आदि कोई पदार्थ नहीं हैं किन्तु हमारे कहने का मतलब यह है कि- गृहस्थ लोग रोग के समय मे जो भूत प्रेत आदि के वहम में फँस जाते है सो यह उन की मूर्खता है, क्योंकि देखो ' ऊपर लिखे I हुए जो पिशाच आदि देव है वे प्रत्येक मनुष्य के शरीर में नहीं आते हैं, हां यह दूसरी बात है कि पूर्व भव ( पूर्व जन्म ) का कोई वैरानुबन्ध ( वैर का सम्बध ) हो जाने से ऐसा हो जावे (किसी के शरीर मे पिशाचादि प्रवेश करे) परन्तु इस बात की तो परीक्षा भी हो सकती है अर्थात् शरीर में पिशाचादि का प्रवेश है या नहीं है इस बात की परीक्षा को तुम सहज मे थोडी देर में ही कर सकते हो, देखो ! जब किसी के शरीर मे तुम को भूत प्रेत आदि की सम्भावना हो तो तुम किसी छोटी सी चीज को हाथ की मुट्ठी में बन्द करके उस से पूछो कि हमारी मुट्ठी में क्या चीज़ है ? यदि वह उस चीज को ठीक २ वतला दे तो पुन भी दो तीन वार दूसरी २ वीजो को लेकर पूँछो, जब कई बार ठीक २ सब वस्तुओं को बतला दे तो वेशक शरीर मे भूत प्रेत आदि का प्रवेश समझना चाहिये, यही परीक्षा भैरू जी तथा मावड्यों जी आदि के मोशे पर ( जिन पर भैरू जी आदि की छाया का आना माना जाता है) भी हो सकती है, अर्थात् वे (भोपे ) भी यदि वस्तु को ठीक २ वतला देव तो अलवत्तह उक्त देवों की छाया उन के शरीर में समझनी चाहिये, परन्तु यदि मुट्ठी की चीज को न बतला सके तो
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