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तृतीय अध्याय ॥ जो स्त्री ऊपर लिखे हुए नियमों के अनुसार वर्ताव करेगी वह सदा नीरोग और सौभाग्यवती रहेगी तथा उस का सन्तान भी सुशील, रूपवान्, बुद्धिमान् तथा सर्व शुभ लक्षणों से युक्त उत्पन्न होगा।
यह तृतीय अध्यायका-रजोदर्शन नामक दूसरा प्रकरण समाप्त हुआ।
तीसरा प्रकरण-गर्भाधान।
___ गर्भाधान का समय ॥ गर्भाधान उस क्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा गर्भाशयमें वीर्य स्थापित किया जाता है, इस का समय शास्त्रकारोंने यह बतलाया है कि-१६ वर्ष की स्त्री तथा २५ वर्षका पुरुष इस (गर्भाधान) की क्रिया को करे अर्थात् उक्त अवस्थाको प्राप्त हो कर पुरुष
और स्त्री सन्तान को उत्पन्न करें, यदि इस से प्रथम इस कार्य को किया जायगा तो गर्भ गिर जायगा अथवा (गर्भ न गिरा तो ) सन्तति उत्पन्न होते ही मर जायगी अथवा (यदि सन्तति उत्पन्न होते ही न भी मरी तो) दुर्बलेन्द्रिय होगी इसलिये अल्पावस्था में गर्माधान कभी न करना चाहिये। ___प्यारे सज्जनो देखो । स्त्री की योनि सन्तान के उत्पन्न करने का क्षेत्र (खेत) है इस लिये जिस प्रकार किसान अन्न आदि के उत्पन्न करने में विचार रखता है उसी भांति वरन उस से भी अधिक सन्तानोत्पत्ति में विचार करना मनुष्य को अति आवश्यक है जिससे किसी प्रकार की हानि न हो।
गर्भाधान के विषय में शास्त्रकारों की यह सम्मति है कि जब तक स्त्री १६ वार रजो धर्म से शुद्ध न हो जावे तब तक उसमें बीज बोने ( वीर्यस्थापन करने ) अर्थात् • सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा नहीं करनी चाहिये, परन्तु अत्यन्त शोक का विषय है कि-आज कल इस विचार को लोगों ने विलकुल ही त्याग दिया है और इस के त्यागने ही के कारण वर्तमानमें यह दशा हो रही है कि मनुष्यगण न्यूनबल, निर्बुद्धि, अल्पायु,
१-क्योकि उत्पन्न करने की शक्ति स्त्री पुरुष में उक्तअवस्थानमें ही प्रकट होती है. तथा स्त्रीमें ४५ अथवा ५० वा ५५ वर्षतक वह शक्ति स्थित रहती है, परन्तु पुरुष में ७५ वर्षतक उक शकि प्रायः रहती है, यद्यपि यूरोप आदि देशोंमें सौ २ वर्ष की अवस्था पालेभी पुरुष के बच्चेका उत्पन्न होना अखबारों में पढते हैं तथापि इस देशके लिये तो शास्त्रकारोंका ऊपर कहा हुआ ही कथन है, ८ वर्षसे लेकर १४ वर्षकी अवस्थातक उत्पन्नकरने की शक्ति की उत्पत्ति का प्रारंभ होता है १५ से २१ वर्ष तककी वह अवस्था है कि जिसमें अडकोश में वीर्य बनने लगता है तथा पुरुषविहको प्रयोग में लाने की इच्छा उत्पन्न होती है, २१ से ३० वर्षतक पूर्णता की अवस्था है, इसविषय का विशेष वर्णन सुक्षुतमादि प्रन्थों में देखलेना चाहिये।