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चतुर्थ अध्याय ॥
२६३ शाकों में चदलिये के पत्ते, परवल, पालक, वथुआ, पोथी की भाजी, सूरणकन्द, मेथी के पत्ते, तोरई, भिण्डी और कहू आदि पथ्य है ।
दसरे आवश्यक पदार्थों में गाय का दूध, गाय का घी, गाय की मीठी छाछ, मिश्री, अदरख, आँवले, सेंधानमक, मीठा अनार, मुनक्का, मीठी दाख और वादाम, ये मी सव पथ्य पदार्थ है।
दूसरी रीति से पदार्थो की उत्तमता इस प्रकार समझनी चाहिये कि-चावलों में लाल, साठी तथा कमोद पथ्य है, अनाजों में गेहूँ और जौ, दालों में मूंग और अरहर की दाल, मीठे में मिश्री, पत्तों के शाक में चॅदलिया, फलों के शाक में परवल, कन्दशाक में सूरण, नमकों में सेंधा नमक, खटाई में ऑवले, दूधों में गाय का दूध, पानी में बरसात का अधर लिया हुआ पानी, फलों में विलायती अनार तथा मीठी दाख, मसाले में अदरख, धनिया
और जीरा पथ्य है, अर्थात् ये सब पदार्थ साधारण प्रकृतिवालों के लिये सब ऋतुओं में और सब देशों में सदा पथ्य हैं किन्तु किसी २ ही रोग में इन में की कोई २ ही वस्तु कुपथ्य होती है, जैसे-नये ज्वर में बारह दिन तक घी, और इक्कीस दिन तक दूध कुपथ्य होता है इत्यादि, ये सव वातें पूर्वाचार्यों के बनाये हुए अन्थों से विदित हो सकती है किन्तु जो लोग अज्ञानता के कारण उन (पूर्वाचार्यो) के कथन पर ध्यान न देकर निपिद्ध वस्तुओं का सेवन कर बैठते है उन को महाकष्ट होता है तथा प्राणान्त भी हो जाता है, देखो ! केवल वातज्वर के पूर्वरूप में घृतपान करना लिखा है परन्तु पूर्णतया निदान कर सकने वाला वैद्य वर्तमान समय में पुण्यवानों को ही मिलता है, साधारण वैद्य रोग का ठीक निदान नहीं कर सकते है, प्रायः देखा गया है कि-वातज्वर का पूर्वरूप समझ कर नवीन ज्वर वालों को घृत पिलाया गया है और वे बेचारे इस व्यवहार से पानीझरा और मोतीझरा जैसे महाभयंकर रोगों में फंस चुके है, क्योंकि उक्त रोग ऐसे ही व्यवहार से होते है, इसलिये वैद्यों और प्रजा के सामान्य लोगों को चाहिये कि-कम से कम मुख्य २ रोगों में तो विहित और निषिद्ध पदार्थों का सदा ध्यान रखें।
साधारण लोगों के जानने के लिये उन में से कुछ मुख्य २ वातें यहां सूचित करते है:
नये ज्वर में चिकने पदार्थ का खाना, आते हुए पसीने में और ज्वर में ठंढी तथा मलीन हवा का लेना, मैला पानी पीना तथा मलीन खुराक का खाना, मलज्वर के सिवाय नये ज्वर में बारह दिन से पहिले जुलाव सम्बन्धी हरड़ आदि दवा वा कुटकी चिरायता आदि कहुई कपैली दवा का देना निषिद्ध है, यदि उक्त समय में उक्त निपिद्ध
१-इस को पूर्व मे भलता कहते है, यह एक प्रकार का रग होता है ॥