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जैनसम्प्रदायशिक्षा ||
इस के सिवाय यह भी देखा गया है कि-रात दिन के अभ्यासी अपठित ( बिना पढ़े हुए ) भी बहुत से जन मृत्यु के चिह्नों को प्रायः अनेक समयों में बतला देते है, तात्पर्य सिर्फ यही है कि - " जो जामें निशदिन रहत, सो तामें परवीन" अर्थात् जिस का जिस विषय में रात दिन का अभ्यास होता है वह उस विषय में प्रायः प्रवीण हो जाता है, परन्तु यह बात तो अनुभव से सिद्ध हो चुकी है कि-सन्निपात ज्वर के जो १३ भेद कहे गये है उन के बतलाने में तो अच्छे २ चतुर वैद्यों को भी पूरा २ विचार करना पड़ता है अर्थात् यह अमुक प्रकार का सन्निपात है इस बात का बतलाना उन को भी महा कठिन पड़ जाता है ।
इन सब बातों का विचार कर यही कहा जा सकता है कि जो वैद्य सन्निपात की योग्य चिकित्सा कर मनुष्य को बचाता है उस पुण्यवान् वैद्य की प्रशंसा के लिखने में लेखनी सर्वथा असमर्थ है, यदि रोगी उस वैद्य को अपना तन मन और धन अर्थात् सर्वख भी दे देवे तो भी वह उस वैद्य का यथोचित प्रत्युपकार नहीं कर सकता है अर्थात् बदला नहीं उतार सकता है किन्तु वह (रोगी) उस वैद्य का सर्वदा ऋणी ही रहता है।
यहां हम सन्निपातज्वर के प्रथम सामान्य लक्षण और उस के बाद उस के विषय में आवश्यक सूचना को ही लिखेंगे किन्तु सन्निपात के १३ भेदों को नहीं लिखेंगे, इस का कारण केवल यही है कि सामान्य बुद्धिवाले जन उक्त विषय को नहीं समझ सकते है और हमारा परिश्रम केवल गृहस्थ लोगों को इस विषय का ज्ञान कराने मात्र के लिये है किन्तु उन को वैध बनाने के लिये नही है, क्योंकि गृहस्थजन तो यदि इस के विषय में इतना भी जान लेंगे तो भी उन के लिये इतना ही ज्ञान (जितना हम लिखते है) अत्यन्त हितकारी होगा । लक्षण - जिस ज्वर में 'बात, पित्त और कफ, ये तीनों दोष कोप को प्राप्त हुए होते १ - चौपाई
--क्षण क्षण दाह शीत पुनि होई ॥ पीड़ा हाड सन्धि शिर सोई ॥ १ ॥ गदले नैव नीर को स्रावै ॥ रक कुटिल लोचन में आवै ॥ २ ॥ कर्ण शूल भरणाटो जामे ॥ कण्ठ रोध पुनि होने तामे ॥ ३ ॥ तन्द्रा मोह अरु भ्रम परलापा ॥ अरुचि श्वास पुनि कास संतापा ॥ ४ ॥ जिहा श्याम दग्व सी दीसै तीक्ष्ण स्पर्श पुनि विश्वा वीसे ॥ ५ ॥ अग शिथिल अति होवें जासू ॥ नासा रुधिर सबै सो तालू ॥ ६ ॥ कफ पित मिल्यो रुधिर मुख आवै ॥ रक्त पीत ज्यों वरण दिखावै ॥ ७ ॥ तृष्णा शोष शीस को बालै ॥ नीद न आवै काल अकालै ॥ ८ ॥
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मल रु मूत्र चिर कालडु वरसे ॥ अल्प स्वेद पुनि ॲग मे दरसे ॥ ९ ॥ कण्ठकूज कफ की अति बाधा ॥ कृशित अङ्ग वा को नहि लाषा ॥ १० ॥ श्याम रक मण्डल है ऐसा || ढाट्या खादा दाफड़ जैसा ॥ ११ ॥ भारी उदर सुने नहि काना || श्रोत्रपाक इत्यादिक नाना ॥ १२ ॥ बहुत काल मे दोप जु पाचै ॥ सन्निपातज्वर लक्षण साचै ॥ १३ ॥ मनिपातज्वर सहज सुरूपा ॥ प्रन्थान्तर में वरण अनूपा ॥ १४ ॥
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