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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ इस के अति सेवन से यह-दन्तहर्ष (दाँतों का जकड़ जाना), नेत्रबन्ध (आँखोंका मिचना), रोमहर्ष (रोंगटों का खड़ा होना), कफ का नाश तथा शरीरशैथिल्य (शरीर का ढीला होना) को करता है, एवं कण्ठ छाती तथा हृदय में दाह को करता है ॥
खारा रस-मलशुद्धि को करता है, खराब व्रण (गुमड़े) को साफ करता है, खुराक को पचाता है, शरीर में शिथिलता करता है, गर्मी करता तथा अवयवों को कोमल (मुलायम) रखता है।
इस के अति सेवन से यह खुजली, कोढ, शोथ तथा थेथरको करता है, चमड़ी के रंग को बिगाड़ता है, पुरुषार्थ का नाश करता है, आंख आदि इन्द्रियों के व्यवहार को मन्द करता है, मुखपाक (मुँह का पकजाना) को करता है, नेत्रन्यथा, रक्तपित्त, वातरक्त तथा खट्टी डकार आदि दुष्ट रोगों को उत्पन्न करता है ॥
तीखा रस-अग्नि दीपन, पाचन तथा मूत्र और मल का शोधक (शुद्ध करनेवाला) है, शरीर की स्थूलता (मोठापन ),आलस्य, कफ, कृमि, विषजन्य (जहर से पैदा होनेवाले) रोग, कोढ तथा खुजली आदि रोगों को नष्ट करता है, सांधों को ढीला करता है, उत्साह को कम करता है तथा स्तन का दूध, वीर्य और मेद इन का नाशक है ।
इस के अति सेवन से यह-अम, मद, कण्ठशोष (गले का सूखना), तालशोष (ताल का सूखना), ओष्ठशोष (ओठों का सूखना), शरीर में गर्मी, बलक्षय, कम्प और पीड़ा आदि रोगों को उत्पन्न करता है तथा हाथ पैर और पीठ में वादी को करके शूल को उत्पन्न करता है ।
'कडुआ रस-खुजली, खाज, पित्त, सृषा, मूर्छा तथा ज्वर आदि रोगों को शान्त करता है, स्तन के दूधको ठीक रखता है तथा मल, मूत्र, मेद, चरबी और व्रणविकार (पीप) आदि को सुखाता है।
इस के अति सेवन से यह-गर्दन की नसों का जकड़ना, नाड़ियों का खिंचना, शरीर में व्यथा का होना, भ्रम का होना, शरीर का टूटना, कम्पन का होना तथा भूख में रुचि का कम होना आदि विकारों को करता है ॥
कषैला रस-दस्त को रोकता है, शरीर के गात्रों को दृढ करता है, व्रण तथा प्रमेह आदि का शोधन (शुद्धि) करता है, प्रण आदि में प्रवेश कर उस के दोष को निकालता है तथा लेद अर्थात् गाढ़े पदार्थ पके हुए पीपका शोषण करता है।
इस के अति सेवन से यह-हृदय पीड़ा, मुखशोष (मुखका सूखना), आध्मान (अफरा), नसों का जकड़ना, शरीर स्फुरण (शरीर का फड़कना), कम्पन तथा शरीरका संकोच आदि विकारोंको करता है ।