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जैनसम्प्रदायशिक्षा । १३-पक्षाघात इस रोग में आधे शरीर की नसों का शोषण हो कर गति की रुकावट हो जाती है।
१४-क्रोष्टुशीर्षक-इस रोग में गोड़ों में वादी खून को पकड़ कर कठिन सूजन को पैदा करती है।
१५-मन्यास्तम्भ-इस रोग में गर्दन की नसों में वायु कफ को पकड़ कर गर्दन को जकड़ देती है। - १६-पड-इस रोग में कमर तथा जांधों में वादी घुस कर दोनों पैरों को निकम्मा कर देती है। । १७-कलायखन-इस रोग में चलते समय शरीर में कम्पन होता है तथा पैर टेढे पड़ जाते हैं।
१८-तूनी-इस रोग में पक्काशय में चिनग पैदा होकर गुदा और उपस्थ (पेशाव की इन्द्रिय) में जाती है।
१९-प्रतितूंनी-इस रोग में तूनी की पीड़ा नीचे को उतर कर पीछे नाभि की तरफ जाती है।
२०-खञ्ज-इस रोग में पंगु (पांगले) के समान सब लक्षण होते हैं, परन्तु विशे-- षता केवल यही है कि यह रोग केवल एक पैर में होता है, इस लिये इस रोगवाले को लँगड़ा कहते हैं।
२१-पादहर्ष-इस रोग में पैर में केवल झनझनाहट होती है तथा पैर शून्य जैसा हो जाता है।
२२-गृध्रसी-इस रोग में कटि (कमर) के नीचे का भाग (जांघ) और पैर आदि) जकड़ जाता है।
२३-विश्वाची-इस रोग में हथेली तथा अंगुलियां जकड़ जाती हैं और हाथ से काम नहीं होता है।
२४-अपवाहुक-इस रोग में हाथों की नाड़ी जकड़ कर हाथ दूखते (दर्द करते रहते हैं।
२५-अपतानक-इस रोग में वादी हृदय में जाकर दृष्टि को खव्य (रुकी हुई) करती है, ज्ञान और संज्ञा (चेतनता) का नाश करती है और कण्ठ से एक विलक्षण (अजीब) तरह की आवाज निकलती है, जब यह वायु हृदय से अलग हटती है तब रोगी को संज्ञा प्राप्त होती है (होश आता है), इस रोग में हिष्टीरिया (उन्माद) के समान चिह्न वार २ होते तथा मिट जाते है। १-यह सूजन शृगाल के शिर के समान होती है, इसी लिये इस को कोष्टशीर्षक(शृगाल का शिर) कहते हैं। २-इस को कोई २ शास्त्रकार प्रतूनी भी कहते हैं ।