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जैनसम्प्रदायशिक्षा॥ शरीर पुष्ट हो जाता है परन्तु ऐसा होने से गर्भिणी दुर्बल होती जाती है, इस लिये इस
समय में भी गर्भिणी को ऊपर लिखे अनुसार ही आहार देते रहना चाहिये । ८-आठवें महीने में वालक का सम्पूर्ण शरीर तैयार हो जाता है, ओज धातु स्थिर होता
है, माता जो कुछ खाती पीती है उस आहार का रस गर्म के साथ सम्बन्ध रखनेवाली नाड़ी के द्वारा पहुंच कर गर्भ को ताकत मिलती रहती है, अंधेरी कोठरी में पड़े हुए मनुष्य के समान प्रायः उस को तकलीफ ही उठानी पड़ती है, इस महीने में गर्म के साथ सम्बन्ध रखनेवाली उक्त नाड़ी के द्वारा माता तो गर्म का और गर्म माता का ओज वारंवार ग्रहण करता है अर्थात् परस्पर में ओज का सञ्चार होता है इसलिये गर्मिणी किसी समय तो हर्षयुक्त तथा किसी समय खेदयुक्त रहा करती है तथा ओज की स्थिरता न रहने के कारण इस मास में गर्म स्त्री को बहुत ही पीड़ायुक्त करता है, इस लिये इस समय में गर्भवती को भात के साथ में घी तथा दूध मिला कर खाना चाहिये, किन्तु इस में (खुराक में ) कभी चूकना नहीं चाहिये। . ९ वा १०-नवे तथा दशवें महीने में गर्भाशय में स्थित बालक उदर (पेट) में ही ओब
के सहित स्थिर होकर ठहरता है, इस लिये पुष्टि के लिये घी और दूध आदि उत्तम पदार्थ इन मासों में भी अवश्य खाने चाहियें, क्योंकि इस प्रकार के पौष्टिक आहारसे गर्भ की उत्तम रीति से वृद्धि होती है, इस प्रकार से वृद्धि पाकर तथा सब अंगोंसे युक्त होकर गर्भस्थ सन्तान पूर्व त कर्मानुकूल उदर में रहकर गर्भसे बाहर आता है अर्थात् उत्पन्न होता है।
गर्भ-समय में त्याग करने योग्य विपरीत पदार्थः॥ जो.पदार्थ त्याग करने के योग्य तथा विपरीत है उनका सेवन करने से गर्भ उदर में ही नष्ट हो जाता है अथवा बहुत दिनों में उत्पन्न होता है, ऐसा होने से कमी २ गमिणी स्त्री के जीव की भी हानि हो जाती है, इसलिये गर्भिणी को हानि करनेवाले पदार्थ नहीं खाने चाहिये किन्तु जिन पदार्थों का ऊपर वर्णन कर चुके है उन्हीं पदार्थों को खाना चाहिये तथा गर्भवती स्त्री के विषय में जो बातें पहिले लिख चुके है उन का उस
१-क्योंकि गर्भिणी के ही रस आदि धातुओं से गर्भस्थ बालक पुष्टि को पाता है ।
२-यह वही नाड़ी है जो कि माता की नामि के नीचे वालक की नाडी से लगी रहती है, जिस को नाल भी कहते हैं तथा जो बालक के पैदा होने के पीछे उस की नाभि पर लगी रहती है।
३-इसी लिये आठवें महीने में उत्पन्न हुमा वालक प्रायः नहीं जीता है, क्योकि भोज धातु के बिना जीवन कदापि नहीं हो सकता है, क्योंकि जीवन का आधार ओज ही है-इस विषय का विशेष वर्णन वैद्यक प्रन्यों में देखो ॥ '-अर्थात् पूर्व किये हुए कर्मों का फल जबतक उदर में भोग्य है तबतक उस फल को उदर में भोग कर पीछे बाहर आता है (उदर में रहना भी तो कर्म के फलों का ही भोग है)।