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व्याय॥
१२७ नालका टुकड़ा शेष रहा उस को पेट पर रखकर उस पर मुलायम कपड़े की एक पट्टी बांध लेना चाहिये क्योंकि मुलायम कपड़े की पट्टी बांध लेने से नाल की ठीक रक्षा (हिफाज़त) रहती है और वह पट्टी पेटपर रहती है इस लिये पेट में वायु भी नहीं बढ़ने पाता है तथा पेट को उस पट्टी से सहारा भी मिलता है, नाल के चारों तरफ कपड़ा लपेट कर जो डोरी बांधी जाती है उस का प्रयोजन यह है कि बालक के शरीर में जो रुधिर घूमता है वह नालके द्वारा बाहर नहीं निकलने पाता है, क्योंकि डोरी बांधदेनेसे उस का बाहर निकलने से अवरोध ( रुकावट ) हो जाता है क्योंकि रुधिर जो है वही बालक का प्राणरूप है, यदि वह (रुधिर) बाहर निकल जावे तो वालक शीघ्र ही मर जावे, यदि कभी धोखे से नाल ढीला बंधा रह जावे और रुधिर कुछ बाहर निकलता हुआ मालूम होवे तो शीघ्र ही युक्ति से मुलायम हाथ से उस डोरी को कसकर बांध देना चाहिये, यदि नाल पर चोट लगने से कदाचित् रुधिर निकलता होवे तो उस के ऊपर कत्थे का बारीक चूर्ण अथवा चने का आटा बुरका देना चाहिये अथवा रुधिर निकलने के स्थान पर मकड़ी का जाला दाब देने से भी रुधिर का निकलना बंद हो जाता है।
बहुत से लोग नाल को बांध कर उस की डोरी को बालक के गले में रक्खा करते हैं परन्तु ऐसा करना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से कभी २ उस में बालक को हाथ इधर उधर होने में फँस जाता है तो उस को बहुत ही पीड़ा हो जाती है, उस का हाथ पक जाता है वा गिर पड़ता है और उस से कमी २ वालक मर भी जाता है, इस लिये गले में डोरी नहीं रखनी चाहिये किन्तु पेट पर नाल को पट्टी से ही बांधना उत्तम होता है।
नाल अपने आप ही पांच सात दिन में अथवा पांच सात दिन के बाद दो तीन दिन में ही गिर पड़ता है इसलिये उस को खींच कर नहीं निकालना चाहिये, जबतक वह नाल अपने आप ही न गिर पड़े तबतक उस को वैसा ही रहने देना चाहिये, यदि नाल कदाचित् पक जावे तो उस पर कलई (सफेदा ) लगा देना चाहिये, यदि नालपर शोथ (सूजन ) होवे तो अफीम को तेल में घिसकर उसपर लगा देना चाहिये तथा उसपर अफीम के डोड़े का सेक भी करना चाहिये ॥ २-लान ऊपर कही हुई रीति के अनुसार नाल का छेदन करने के पश्चात् यदि ठंड हो तो बालक को फलालेन बनात अथवा कम्बल आदि गर्म कपड़ेपर सुलाना चाहिये और यदि ठंढ न हो तो चारपाई पर कोई हलका मुलायम वस्त्र बिछाकर उसपर बालक को सुलाना चाहिये, इस कार्य के करने के पीछे प्रथम बालक की माता की उचित