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चतुर्थ अध्याय ॥
४६३ १०-यातन्वर में जो काढ़ा दूसरे नम्बर में लिखा है उसे लेना चाहिये । ११-गिलोय, सोंठ और पीपरामूल, इन का काढ़ा पीना चाहिये।
१२-मूरीगणी, चिरायता, कुटकी, सोठ, गिलोय और एरण्ड की जड़, इन का काढ़ा पीना चाहिये।
१३-दाख, धमासा और अडूसे का पत्ता, इन का काढ़ा पीना चाहिये । १४-चिरायता, बाला, कुटकी, गिलोय और नागरमोथा, इन का काढा पीना चाहिये।
१५-ऊपर कहे हुए काढों में से किसी एक काथ (कादों) को विधिपूर्वक तैयार कर थोड़े दिन तक लगातार दोनों समय पीना चाहिये, ऐसा करने से दोष का पाचन और शमन (शान्ति) हो कर ज्वर उतर जाता है ॥
सन्निपातज्वर का वर्णन ॥ तीनों दोषों के एक साथ कुपित होने को सनिपात वा त्रिदोष कहते हैं, यह दशा प्रायः सब रोगों की अन्तिम (आखिरी) अवस्था (हालत ) में हुआ करती हैं', यह दशा ज्वर में जब होती है तब उस ज्वर को सन्निपातज्वर कहते है, किसी में एक दोष की प्रबलता तथा दो दोषों की न्यूनता से तथा किसी में दो दोपों की प्रबलता और एफ दोष की न्यूनता से इस ज्वर के वैद्यकशास्त्र में एकोल्वणादि ५२ भेद दिखलाये है तथा इस के तेरह दूसरे नाम भी रख कर इस का वर्णन किया है।
यह निश्चय ही समझना चाहिये कि यह सन्निपात मौत के बिना नही होता है चाहे मनुप्य बोलता चालता तथा खाता पीता ही क्यों न हो। __ यह भी मरण रखना चाहिये कि-सन्निपात को निदान और कालज्ञान को पूर्णतया जाननेवाला अनुभवी वैद्य ही पहिचान सकता है, किन्तु मूर्ख वैद्यों को तो अन्तदशा तक में भी इस का पहिचानना कठिन है, हां यह निश्चय है कि-सन्निपात के वा त्रिदोप के साधारण लक्षणों को विद्वान् वैद्य तथा डाक्टर लोग सहज में जान सकते हैं ।
१-अर्थात् देवदादि क्वाथ (देखो वातज्वर की चिकित्सा में दूसरी संख्या)। २-यह काढा दीपन और पाचन भी है। ३-काढ़े की विधि पहिले तेरहवे प्रकरण में लिख चुके हैं। ४-अर्थात् अपक्क (कचे) दोप का पाचन और बढ़े हुए दोप का शमन होकर ज्वर उतर जाता है। ५-तात्पर्य यह है कि-सन्निपात की दशा में दोषों का संभालना अति कठिन क्या किन्तु असाध्य सा हो जाता है, बस वही रोग की वा यो समझिये कि प्राणी की अन्तिम (आखिरी) अवस्था होती है, अर्थात् इस ससार से विदा होने का समय समीप ही भाजाता है ।।
६-उन सब ५२ भेदो का तथा तेरह नामो का वर्णन दूसरे वैद्यक अन्यों में देख लेना चाहिये, यहा पर अनावश्यक समझकर उन का वर्णन नहीं किया गया है।
-तात्पर्य यह है कि तीनों दोपों के लक्षणों को देख कर सन्निपात की सत्ता का जान लेना योग्य वैद्यों के लिये कुछ कठिन वात नहीं है परन्तु सनिपात के निदान (मूलकारण) तथा दोपों के अशाशीमाव का निश्चय करना पूर्ण अनुभवी घेद्य का कार्य है।