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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
है, कभी २ इन्द्रिय में से लोहू भी गिरता है, कभी २ इस रोग में रात्रि के समय इन्द्रिय जागृत (चैतन्य) होती है और उस समय बांकी (टेढी) होकर रहती है तथा उस के कारण रोगी के असहा ( न सहने योग्य अर्थात् बहुत ही ) पीड़ा होती है, कमी २
प्रिय वाचक सज्जनो ! आप ने देखा होगा कि जिस लड़के में नौ दश वर्ष की अवस्था में अति चलता थी, जो बुद्धिमान् था, जिस के कपोलों (गालों) पर सुखीं थी, तथा चेहरे पर तेज और कांति थी वही लडका विना विवाह आदि किसी हेतु के कुछ समय के बाद मलीन बदन तथा और का और हो गया है, इस का क्या कारण है ? इस का कारण वही पापाचरण की विभूति है, क्योंकि वह पाप सृष्टि के नियम से ही गुप्त न रह कर उस के चेहरे आदि अट्ठों पर झलक जाता है ।
भला सोचने की बात है
बहुत से व्यभिचारी और दुराचारी जन संसार को दिखाने के लिये अनेक कपट वेप से रहकर अपने को ब्रह्मचारी प्रसिद्ध करते हैं तथा भोले और अज्ञान लोग भी उन के कपट वेप को न समझ कर उन्हें ब्रह्मचारी ही समझने लगते हैं, परन्तु पाठक वर्ग ! आप इस बात का निश्चय रक्खें कि ब्रह्मचारी पुरुष का चेहरा ही उस के ब्रह्मचर्य की गवाही दे देता है, बस लोग जिन को उन के व्यवहार से ब्रह्मचारी समझते हैं, यदि उनका चेहरा ब्रह्मचर्य की गवाही न दे तो आप उन्हें ब्रह्मचारी कभी न समझें। ( प्रश्न ) आप ने अपने इस ग्रन्थ में इस प्रकार की ये बातें क्यों लिखी हैं, क्योंकि दूसरों के दोषों को प्रकट करना हम ठीक नहीं समझते हैं, इस के सिवाय एक यह भी बात है कि यह संसार विचित्र है, इस में सब ही प्रकार के मनुष्य होते हैं अर्थात् शिष्टाचारी ( श्रेष्ठ आचार वाले ) भी होते हैं तथा दुराचारी भी होते हैं, क्योंकि संसार की माया ही वढी विचित्र है, इस संसार में सब एक से नहीं हो सकते हैं और ऐसा होने से ही एक को हानि तथा दूसरे को लाभ पहुँचता है, जैसे देखो ! इस कार्य ( हाथ से वीर्यपात ) के करनेवाले जो मनुष्य हैं उन को जब कुछ हानि पहुँचती है तब वैद्यों को लाभ पहुँचता है, कि यदि सब ही सद्वतीय के द्वारा धर्मात्मा और नीरोग वन जावें तो बेचारे विद्वान् किस को उपदेश दें aer वैद्य वा डाक्टर किस की चिकित्सा करें, तात्पर्य यह है कि इस संसारचक्र में सदा से ही विचित्रता चली आई है और ऐसी ही चली जावेगी, इस लिये विद्वान् को किसी के छिद्रों (दोषों) को प्रकाशित (जाहिर ) नहीं करना चाहिये। (उत्तर) वाह जी वाह ! यह तुह्मारा प्रश्न तुझारे अन्तःकरण की विज्ञता का ठीक परिचय देता है, वडे शोक और आश्चर्य की बात है कि तुम को ऐसा प्रश्न करने में तनिक भी लना नहीं आई और तुम ने ज़रा भी मानुषी बुद्धि का आश्रय नहीं लिया ! हमने इस प्रन्थ में जो इस प्रकार की बातें लिखी हैं उन से हमारा प्रयोजन दूसरे के दोषों के प्रकट करने का नहीं है किन्तु सर्व साधारण को दुर्गुणों के दोष और हानियों को दिखाकर उन से बचाने और चेताने का है, देखो ! इस कुटेव के कारण हज़ारों का सत्यानाश हो गया है तथा होता जाता है, अतः हमने इस के खरुप को दिखाजो इस 'की हानियों का वर्णन कर इस से बचने के लिये उपदेश किया तो इस में क्या बुरा किया, देखो ! प्राणियों को भूल और दोप से बचाना हमारा क्या किन्तु मनुष्यमात्र का यही कर्तव्य है, रही संसार की विचित्रता की बात, कि यह संसार विचित्र है - इस मे सब ही प्रकार के चारी भी होते हैं और दुराचारी भी होते हैं इत्यादि, सो बेशक यह ठीक है, का भी विचार किया है कि मनुष्य दुराचारी क्यों होते हैं, इस के कारण को तुझें मालूम हो जायगा कि मनुष्यों के दुराचारी होने में कारण केवल कुसंस्कार ही है, बस उसी कुसंस्कार
कर
मनुष्य होते हैं अर्थात् शिष्टा
परन्तु
तुम ने कभी इस बात
यदि विचार कर देखोगे तो