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चतुर्थ अध्याय ॥ .
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मङ्गलाचरण ॥ दोहा-श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुंकुर सुधारि ।
वैषु रक्षणके नियम अब, कहत सुनो चितधारि॥१॥
प्रथम प्रकरण-वैद्यक शास्त्र की उपयोगिता ॥
शरीर की रचना और उस की क्रिया को ठीक २ नियम मैं रखने के लिये शरीर संरक्षण के नियमों और उपयोग में आने वाले पदार्थों के गुण और अवगुण को जान लेना अति आवश्यक है, इसीलिये वैद्यक विद्या में इस विभाग को प्रथम श्रेणीमें गिना गया है, क्योंकि शरीर संरक्षण के नियमों के न जानने से तथा पदार्थों के गुण और अवगुण को विना जाने उन को उपयोग में लाने से अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होजाती है, इस के सिवाय उक्त विषय का जानना इसलिये भी आवश्यक है कि अपने २ कारण से उत्पन्न हुए रोगों की दशा में उन की निवृत्ति के लिये यह अद्भुत साधन रूप है, क्योंकि रोगदशा में पदार्थों का यथायोग्य उपयोग करना ओषधि के समान बरन उस से भी अधिक लाभकारक होता है, इस लिये प्रतिदिन व्यवहार में आनेवाले वायु, जल और भोजन आदि पदार्थों के गुण और अवगुणों का तथा व्यायाम और निद्रा आदि शरीर संरक्षण के नियमों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रत्येक मनुष्यको अवश्य ही उद्यम करना चाहिये।
शरीरसंरक्षण के नियम-बहुधा दो भागोंमें विभक्त (बटे हुए) हैं अर्थात् रोग को न आने देना तथा आये हुए रोग को हटा देना, इस प्रत्येक भागमें स्थाद्वादमत के अनुसार उद्यम और कर्मगति का भी सञ्चार रहा हुआ है, जैसे देखो-सर्वदा नीरोगता ही रहे, रोग न आने पावे, इस विषय के साधन को जान कर उस की प्राप्तिके लिये उद्यम करना तथा उस को प्राप्त कर उसी के अनुसार वर्ताव करना, इस में उद्यम की प्रवलता है, इस प्रकार का वताव करते हुए भी यदि रोग उपस्थित हो जावे तो उस में कर्म गतिकी प्रबलता समझनी चाहिये, इसी प्रकार से कारणवश रोग की उत्पत्ति होनेपर उसकी निवृत्तिके लिये अनेक उपायों का करना उद्यमरूप है परन्तु उन उपायोंका सफल होना वा न होना फर्मगति पर निर्भर है।
१-चरण कमलोकी धूलि ॥ २-दर्पण ॥ ३-शरीर-॥