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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥
जैसा इस ऋतु में हितकारी और परभव सुखकारी महोत्सव कहीं भी नहीं देखा, वहा के लोग फाल्गुन शुक्ल में प्राय. १५ दिन तक भगवान् का रथमहोत्सव प्रतिवर्ष किया करते है अर्थात् भगवान् के रथ को निकाला करते है, रास्ते में स्तवन गाते हुवे तथा केगर आदि उत्तम पदार्थों के जल से भरी हुई बांदी की पिचकारियां चलाते हुवे बगीचों में जाते है, वहापर स्नात्र पूजादि भक्ति करते है तथा प्रतिदिन शाम को सैर होती है इत्यादि, उक्त धर्मी पुरुषों का इस ऋतु में ऐसा महोत्सव करना अत्यन्त ही प्रशंसा के योग्य है, इस महोत्सव का उपदेश करनेवाले हमारे प्राचीन यति प्राणाचार्यही हुए हैं, उन्हीं का इस भव तथा परभव में हितकारी यह उपदेश आजतक चल रहा है, इस बात की बहुत ही हमें खुशी है तथा हम उन पुरुषों को अत्यन्त ही धन्यवाद देते हैं जो आजतक उक्त उपदेश को मान कर उसी के अनुसार वर्ताव कर अपने जन्म को सफल कर रहे हैं, क्योंकि इस काल के लोग परभव का खयाल बहुत कम करते हैं, प्राचीन समय मे जो आचार्य लोगों ने इस ऋतु में अनेक महोत्सव नियत किये थे उन का तात्पर्य केवल यही था कि मनुष्यों का परभव भी सुधरे तथा इस भव में भी ऋतु के अनुसार उत्सवादि मे परिश्रम करने से आरोग्यता आदि बातों की प्राप्ति हो, यद्यपि वे उत्सव रूपान्तर में अब भी देखे जाते हैं परन्तु लोग उन के तरच को विलकुल नही सोचते है और मनमाना वर्ताव करते हैं, देखो। दामी पुरुष होली तथा गौर अर्थात् मदनमहोत्सव (होली तथा गौर की उत्पत्ति का हाल ग्रन्थ वढ जाने के भय से यहा नहीं लिखना चाहते हैं फिर किसी समय इन का वृत्तान्त पाठकों की सेवा में उपस्थित किया जावेगा ) में कैसा २ वर्ताव करने लगे हैं, इस महोत्सव में वे लोग यद्यपि दालिये और बडे आदि कफोच्छेदक पदार्थों को खाते है तथा खेल तमात्रा आदि करने के बहाने रात को जागना आदि परिश्रम भी करते हैं जिस से कफ घटता है परन्तु होली के महोत्सव मे वे लोग कैसे २ महा असम्बद्ध वचन बोलते है, यह बहुत ही खराब प्रथा पड गई है, बुद्धिमानों को चाहिये कि इस हानिकारक तथा भांडों की सी चेष्टा को अवश्य छोड दें, क्योकि इन महा असम्बद्ध वचनों के बकने से मज्जातन्तु कम जोर होकर शरीर में तथा बुद्धि में खरावी होती है, यह प्राचीन प्रथा नही है किन्तु अनुमान ढाई हज़ार वर्ष से यह भाट चेष्टा वाममार्गी (कूण्डा पन्थी) लोगो के मत्ताध्यक्षों ने चलाई है तथा भोले लोगों ने इस को मङ्गलकारी मान रक्खा है, क्योंकि उन को इस बात की बिलकुल खबर नहीं है कि यह महा असम्बद्ध वचनो का बकना कूडा पन्थियो का मुख्य भजन है, यह दुश्चेष्टा मारवाड के लोगो में बहुत ही प्रचलित हो रही है, इस से यद्यपि वहा के लोग अनेक बार अनेक हानियों को उठा चुके है परन्तु अवतक नहीं संभलते है, यह केवल अविद्या देवी का प्रसाद है कि वर्त मान समय में ऋतु के विपरीत अनेक मन कल्पित व्यवहार प्रचलित हो गये हैं तथा एक दूसरे की देखा देखी और भी प्रचलित होते जाते हैं, अब तो सचमुच कुए में भाग गिरने की कहावत हो गई है, यथा"अविद्याऽनेक प्रकार की, घट घट मॉहि अडी । को काको समुझावही, कुए भाग पड़ी" ॥ १ ॥ जिस में भी मारवाड की दशा तो कुछ भी न पूछिये, यहा तो मारवाडी भाषा की यह कहावत विलकुल ही सत्य होगई है कि- " म्हानें तो रातींघो भाभे जी ने भज लोई राम" अर्थात् कोई २ मर्द लोग तो इन बातो को रोकना भी चाहते हैं परन्तु घर की धणियानियो ( खामिनियों) के सामने बिल्ली से चूहे की तरह उन बेचारों को डरना ही पडता है, देखो । वसन्त ऋतु में ठंडा खाना बहुत ही हानि करता है परन्तु यहा शील सातम (शीतला सप्तमी ) को सब ही लोग ठंढा खाते हैं, गुड भी इस ऋतु में महा हानिकारक है उस के भी शीलसातम के दिन खाने के लिये एक दिन पहिले ही से गुलराव, गुलपपड़ी और तेलपपढी आदि
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