Book Title: Dharmpariksha Katha
Author(s): Padmasagar Gani
Publisher: Devchandra Lalbhai Pustakoddhar Fund
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परीक्षा.
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मनमा बिस्वांच, पस्ताहिदकम् । विचरन्ति यत्सव, प्रचमा नेतरे पुनः॥१९॥ शामरविवारवा, सध्यस्था कर्माकाहिनः । पक्षपातषिनिसुवा, मव्याः सन्याः प्रकीर्चताः॥ १९१। सुभाषितं सुखापावि, मूर्येषु पिनियोजितम् । ददाति महतीं पीतां, क्यानमिवाहिषु ॥ १९२ ॥ पईते जायते पचं, सलिले जातु पावकः। पीयू कालकूटे च, विचारस्तु न बालि ॥ १९३॥ कीरशाः सन्ति ते साधो! द्विजैरिति निवेदिते । वक्तुं प्रचक्रमे खेटो, रक्तद्विष्टादिचेष्टितम् ॥ १९४॥ सामम्मकारलाबी, रेमपा दक्षिणेत प्रामकटो बहुद्रव्यो, बभूव बहुधान्यकः ॥ १९५॥ सुन्दरी कुरजी च, तस्य भार्ये बभूवतुः । मागीरथी च मौरी च, शम्भोरिख मनोरमे ॥ १९६ ॥ कुरजी तसवीं प्राप्य, वृद्धां तत्याज सुन्दरीम्। सरसायां हि लब्धावां, विरसां को निषेवते ॥ १९७॥ सुन्दरी मणिता तेन, गृहीत्वा भाममात्मनः । ससुता तिष्ठ भद्रे ! त्वं, विस्ता भवनान्तरे ॥ १९८ ॥ साची तया स्थिता सापि, खायिना गदिता यक्षा। शीलवन्योन कुर्वन्ति, भर्तृवाक्यव्यतिक्रमम् ॥ १९९॥ अष्टौ ततो बलीवदा, वितीर्णा व धेनकः।।दाखौ हालिको दो च, सोपकरषमन्दिरम् ॥ २०॥ सुधानः काहितं भोगं, कुरख्या सचिमोहितः। विवेद गतं कालं, तारुण्वे च महातुरः॥२.१॥ आसाथ सुन्दराकारां, तां प्रिवां नवयौवनाम् । पालोम्यालिङ्गितं शक्रं, स मेने नात्मनोऽधिकम् ॥ २०२॥

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