Book Title: Dharmpariksha Katha
Author(s): Padmasagar Gani
Publisher: Devchandra Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 24
________________ धर्म परीक्षा. ॥१०॥ पाखणं किसयार !, खाद याहि प्रियायहम् । केतुको मतो मीतः, स सुन्दर्या निकेतनम् ॥ २४२॥ विशालं कोमलं दत्वं, तया तस्य वरासक्छ । कुर्बया परमं बेई, खरिचमिव निर्मलम् ॥ २४३ ॥ अपचाणि विचित्रानि, पुरस्तस निधाव सा । सरसं विश्राणवामास, तारुण्यमिव भोजनम् ॥ २४४ ॥ क्तिीर्ण तस सुन्दर्या, नाऽभवहुचयेऽशनम् । अभव्यखेक चारित्रं, जिनवाचा विशुद्धया ॥ २४५॥ पुष्टिदं विपुलखेहं, कलत्रमिव भोजनम् । सुवर्णराजितं भव्यं, न तखाभूत् प्रियङ्करम् ॥ २५६ ॥ ईक्षमाणः पुरः क्षिप्रं, भाजने भोज्यमुत्तमम् । व्यचिन्तयदसावेवं, कामान्धं तमसावृतः॥२४७॥ चन्द्रमूर्तिरिवानन्ददायिनी सुपयोधरा । किं कुरजी मम कुद्धा ? न दृष्टिमपि यच्छति ॥ २४८॥ नूनं मां वेश्यया सार्द्ध, सुतं ज्ञात्वा चुकोप सा । तत्रास्ति भुवने मन्ये, ज्ञायते यन्त्र दक्षया ॥ २४९ ॥ ऊर्तीकृतमुखोऽवादि, परिवारजनैरवम् । किं तुभ्यं रोचते नात्र ? मुरुक्ष्व सर्व मनोरमम् ॥ २५०॥ स जमी किमु जेमामि ? न किञ्चिज्जेमनोचितम् । कुरङ्गीगृहतो भोज्यं, किञ्चिदानीयतां मम ॥ २५१ ॥ श्रुत्वेति सुन्दरी गत्वा, कुरजीभवनं जगौ । कुरशि! देहि किञ्चित् त्वं, कान्तस रुचवेशनम् ॥ २५२ ॥ साऽवादीन मयाऽवानं, किञ्चनाप्युपसाधितम् । त्वदीयभुवने तस्व, भोजनं मन्यमानवा ॥ २५३॥ यदि कलिप्यते दत्तं, गोमयं स पतिर्मया। तदा सहिष्यते सर्व, दूषणं मम सक्तधीः ॥ २५४ ॥ ॥१०॥

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