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प्रथम दादागुरु देव पूजा अविधि-विधि भेद प्रकाश किया,
तब श्रीजिन दत्तसूरीश्वर ने मिथ्या०॥२॥ जब झूठे गच्छ कदाग्रह में,
गृही गण को फांदा जाता था। जिन शासन का सच्चा पथ तब,
दिखला दिया दत्तसूरीश्वरने मिथ्या०॥३॥ जिन मन्दिर में गद्दी अपनी,
मुनिनाम धारी जब रखते थे। मन्दिर-यति धर्म स्वरूप तभी,
समझाया दत्तसूरीश्वर ने मिथ्या०॥४॥ निर्गुण दुष्कुल में जन्मे को,
स्वारथहित द्रव्य को देकर के । वैसे गुरु शिष्य बनाते थे,
छुड़वाया दत्तसूरीश्वर ने मिथ्या० ॥५॥ जब विषय कषायाधोन हुए,
मुनि देव द्व्य को खाते थे. उसका भी खण्डन खूब किया,
संयमी गुरु दत्तसूरीश्वर ने ॥मिथ्या०॥६॥ सुखसागर वे भगवान बनें,
त्रिभुवन में उनका यश पसरे।
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