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प्रथम दादागुरु देव पूजाः (तर्ज-चिन्ता चूर चिन्तामणि पास प्रभु० )
गुरुदेव की सेव सदैव करो,
निज पुण्य परम भण्डार भरो ॥ टेर ॥ जो भर सुगन्धित जल कलश, गुरु चरण कज प्रक्षालते । कर्म के सब पाप मल वे, दूर ही ते टालते ॥ ___निज रूप अनूप करो उजरो । गुरु० ॥१॥ प्रभु वीर शासन में हुए, श्री गौतमादिक गुरुवरा । संसार में जिनका विभलतर, ध्यान है मंगलधरा ॥
नित ध्यान करो सब पाप हरो । गुरु० ॥२॥ कुछ मध्य में अति हीन काल, प्रभावतें अति हीनता। होने लगी थी साधुओं में, चैत्यवास मलीनता ॥
यही आज कहे इतिहास खरो । गुरु० ॥३॥ श्री वर्द्ध मानाचार्यपद, सूरि जिनेश्वर सूर्य से । उस तिमिर परित काल में, चमके सुखरतर कार्य से ।।
उनके सत्य प्रकाश का बोध करो। गरु० ॥ ४ ॥ फिर सिंहनाद सुवाद भी, सूरि जिनेश्वरने किया। मृग चैत्यवासी भग गये. खरतर बिरुद दुर्लभ दिया । ____ उसी सुविहित पथमें भवी विचरो । गुरु० ॥ ५ ॥ दोष-लांछन रहित उनके, शांत कांति हुए सुधी। जिनचन्द्रसूरि चन्द्र से, सवेग रंग सुधानिधि ।।
उनकी सुविधि सुधा का पान करो । गुरु० ॥६॥
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