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अक्रिय, ज्ञाता-दृष्टा, परमानंदी है, जो क्रियावाले ज्ञान को जानता है, वही 'खुद की' स्वसत्ता है । जितना शुद्ध उपयोग रहा, उतनी स्वसत्ता प्रकट होगी। घोर अपमान में भी परसत्ता खुद पर नहीं चढ़ बैठे तो उसे आत्मा प्राप्त किया कहा जाएगा! एक घंटा स्व-स्वभाव में रहकर प्रतिक्रमण होंगे तो स्वसत्ता का अनुभव होगा ।
करता है कोई और, और मानता है कि 'मैं कर रहा हूँ', वह परपरिणति है।‘व्यवस्थित' जो-जो करवाता है, उसे वीतरागभाव से देखता रहे, वह स्वपरिणति है । एक क्षण के लिए भी परपरिणति में प्रवेश नहीं करें, वे ज्ञानी! वे ही देहधारी परमात्मा ! जो स्वपरिणति में रहता है, उसे परपरिणति स्पर्श ही नहीं करती।
" ज्ञान जब उपयोग में आता है, तब वह स्वपरिणति में आता है । "
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ज्ञानी की आज्ञा, ज्ञानी के दर्शन स्वपरिणति में लाते हैं । जब तक किंचित् मात्र भी किसीका अवलंबन है, तब तक परपरिणति है ।
'डिस्चार्ज' भाव को खुद के भाव मानता है, इसीलिए परपरिणति में जाता है।‘डिस्चार्ज' भाव को खुद के भाव नहीं माने तो वह स्वपरिणति में है। जो एक भी ‘डिस्चार्ज' भाव को खुद का भाव नहीं मानते, वे 'ज्ञानीपुरुष' !
स्वपरिणाम और परपरिणाम जीवमात्र में होते ही हैं। जो परपरिणाम को स्वपरिणाम माने और 'करनेवाला मैं ही हूँ और जाननेवाला भी मैं ही हूँ', माने वह अज्ञान है।
पुद्गल और आत्मा दोनों परिणामी स्वभाव के हैं, इसलिए प्रति क्षण परिणाम बदलते हैं, इसके बावजूद भी खुद का स्वभाव कभी भी कोई नहीं छोड़ता, दोनों ऐसे हैं । पुद्गल के पारिणामिक भाव अर्थात् सांसारिक बाबतों में ज्ञान हाज़िर होता है कि आलू खाएँगे तो उससे वायु होगी। जब कि शुद्धात्मा के पारिणामिक भाव अर्थात् ज्ञाता - दृष्टा ! क्रोध- मान-मायालोभ, ये सारे भी पुद्गल के पारिणामिक भाव हैं । पारिणामिक भाव कि जिनमें बदलाव कभी भी नहीं हो सकता । अब यह जगत् इन्हें छोड़ने को
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