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जिसे पुद्गल में पारिणामिक दृष्टि उत्पन्न हो जाती है, उसे विषयसुख फीके लगते हैं। जलेबी खाई, उसकी सुबह क्या दशा होगी, खीर की उल्टी होने के बाद वह कैसा लगेगा? ऐसी पारिणामिक दृष्टि रहनी चाहिए।
शरीर के परमाणु, मन के परमाणु प्रति क्षण बदलते ही रहते हैं। परमाणु परिवर्तित होते रहते हैं, फिर भी वे कम-ज्यादा नहीं होते।
जिस तरह हर एक आत्मा का एक ही स्वभाव है, उसी तरह परमाणु भी एक ही स्वभाव के हैं। मात्र क्षेत्र परिवर्तन के कारण भाव परिवर्तन और भाव परिवर्तन के कारण होनेवाला हर एक का परिवर्तन बिल्कुल अलग-अलग लगता हैं। जिसके आधार पर जगत् का अस्तित्व है। परमाणु जड़ तत्व के ही होते हैं। परमाणु जड़ हैं परन्तु चेतनभाव को प्राप्त करके चेतनवाले बन जाते हैं, जिसे मिश्रचेतन कहते हैं। जब तक शरीर से बाहर हों तब तक परमाणुओं की अवस्था विश्रसा हैं, अंदर प्रविष्ट हो जाएँ, तब प्रयोगशा और फल देते समय मिश्रसा होती है।
सिर्फ आत्महेतु के लिए ग्रहित परमाणु ही सर्वोच्च होते हैं, जो मोक्ष जाने तक चक्रवर्ती (राजा) जैसी सुविधाएँ देते हैं।
जब तक प्रयोगशा की स्टेज हो, तब तक परिवर्तन संभव है, मिश्रसा होने के बाद किसीका चलन नहीं रहता। बाहर शुद्ध स्वरूप से रहे हुए परमाणु स्वाभाविक विश्रसा है। आत्मा के संयोग में आने के बाद विभाविक, प्रयोगशा बन जाता है। विभाविक पद्गगल विनाशी है, स्वभाविक पुद्गल अविनाशी है। विभाविक पुद्गल स्वतंत्र नहीं है, 'व्यवस्थित' के अधीन है।
परमाणु मूल स्वरूप से केवलज्ञान में ही दिखाई देते हैं।
जिस प्रकार आत्मा अनंत शक्तिवाला है उसी प्रकार पुद्गल भी अनंत शक्तिवाला है। आत्मा इस पुद्गल की शक्ति जानने गया और खुद ही उसमें बंदी बन गया! पुद्गल के धक्के से आत्मा में नैमित्तिक कर्तापन उत्पन्न हो गया है।
दो सनातन तत्वों के परस्पर साथ में आने से विशेष परिणाम उत्पन्न होता है।
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